चल चंदा उस ओर,
जहां नहाती प्रिया सुन्दरी थामें आंचल कोर ।
स्वच्छ चांदनी छटा दिखाना,
भूलूं यदि तो राह दिखाना।
विस्मृत हो जाये तन सुध तो,
देना तन झकझोर.........................।
मस्त बसंती हवा बहाना,
उसको प्रिय का पता बताना।
हवा तनिक भूले पथ जो,
कर देना उस ओर........................।
देख निशा गहराती जाती,
बुझती लौ घटती रे बाती।
लौ तनिक तेज करना,
भरना सुखद अजोर....................।
सनी नीर से लता माधवी,
यौवन पूर्ण प्रिया साधवी।
उसके बाल-व्यूह में उलझा,
अभिमन्यु-नयन किशोर............।
Comment
//क्या गीत की मध्य पंक्तियों में भी मात्राओं का ध्यान रखना पड़ता है?//
निर्भर करता है कि आप किस तरह का गीत लिखने लगे हैं? यदि संगीतकार (रों) द्वार दिये गये नोट्स या मीटर पर किसी विषय विशेष पर गीत लिख रहे हों तो गीत की मात्राएँ उन नोट्स या दिये गये मीटर के हिसाब से गीत लिखा जाता है. जैसे फ़िल्मों में लिखा गये कई-कई बहुचर्चित गीत.
यदि आप शास्त्रीय गीत या नवगीत लिख रहे हैं तो फिर आप भले मात्राएँ अपने हिसाब से तय कर लें, लेकिन उन्हें मुखड़े से लेकर अंतरे तक निभना तो होगा ही.
हो सकता है मात्राओं के मिलान न होने की वजह से ही अटकाव आ रहा हो
लेकिन इस शानदार रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई हो
विन्ध्येश्वरी जी बहुत ही प्यारा गीत लिखा है एक-एक शब्द दिल को झंकृत करता हुआ आगे बढ़ता है मुझे बहुत ही पसंद आया |
आदरणीय जी, यदि काव्यात्मक दृष्टि से देखा जाय तो भी ये रचना सही है। मेरे खयाल से काव्य एवँ गीत मे विभेद नही करना चाहिये। और यदि हम विभेद नही करते हैं तो ये आपका काव्य स्वस्थ माना जायेगा।
यदि धुन पर गेयता देखी जाय तो त्रुटिपूर्ण नही लगता। क्योंकि आपने समान जगह समान मात्रायें लिखी हैं।
आदरणीय गुरुवरों की राय उचित समझूँगा। विस्तारित समझायें तो ज्ञान में वृद्धि हो सके।
सादर।
विंध्येश्वरीभाई, आप द्वारा अभिव्यक्त दोनों विन्दु कमसेकम आपसे अपेक्षित नहीं थे. भाई, आप तो मात्रिक छंद रचते हैं. फिर मेरे इस कहे को कि, आप पंक्तियों की मात्राओं को इतनी स्वतंत्रता क्यों दे बैठे को कैसे नहीं समझ पाये कि मैं कहाँ इंगित कर रहा हूँ?
आपही बतायें, क्या मुखड़े की आधार पंक्ति की कुल मात्राओं का रचना की अंतराओं की आधार-पंक्ति में निर्वहन हुआ है ?
भाई विंध्येश्वरीजी, सबसे पहले इस शास्त्रीय गीत के लिये मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें. सनातन किन्तु अत्यंत ही कोमल भाव आपने उकेरे हैं. पंक्ति-पंक्ति लालित्य पूर्ण तथा सहज ही मोहक है. बहुत सुन्दर. बहुत खूब !
किन्तु, इतनी सुगढ़ भाव दशा को आपने समृद्ध शिल्प नहीं दिया. प्रस्तुत कविता की पंक्तियों में ढल कर जो भाव दशा किसी पाठक के हृदय प्रांतर के कोने-कोने को समृद्ध कर सकती थी, वह लसर कर रह गयी है. आप पंक्तियों की मात्राओं को इतनी स्वतंत्रता क्यों दे बैठे, भाईजी ?
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