मैं शून्य का उपासक हूँ
मुझे मेले में भी सब अकेले लगते हैं
इसीलिए सबसे मिल के हँस बोल लेता हूँ
न जाने हंगाम के हंगामे में
कब मुझे मेरा इष्ट (खुदा) मिल जाए
मुकम्मल रास्ते इख्तियार करता हूँ
मंजिल तक जाने के लिए
हर बार सोचता हूँ
ये सही है हाँ ये सच में सही है
चल देता हूँ
सारी शब् चलता हूँ
ठोकरें खाता
सम्हलता
चाँद की रौशनी तक नहीं भाति मुझे
तारों से इर्ष्या करता हूँ
चिल्लाता हूँ
एक दिन देखना मैं आऊंगा
तब तुमको बताऊंगा
हँस लो
काले बादल मुझे अच्छे लगते हैं
वही तो बरसते हैं
कपास की तरह दूधिया बादल
बस देखने के खूबसूरत
एक बूँद ठंडक न दी कभी
बस ललचा गए
छा गए दिमाग में
अमावश बेहतर होती है
एक दम अकेला होता हूँ
मार्ग वीरान होता है
आने वाले तूफ़ान से बेफिक्र
कुछ भी नहीं दिखता
सिवाए चलने के
सहर होते ही रुक जाता हूँ
क्यूंकि मुझे एकाकी रहना भाता है
और सुबह होते ही
एक साया है जो मेरा पीछा नहीं छोड़ता
निरंकुश है
कहना मानता ही नहीं
कभी आगे कभी पीछे
कभी दायें कभी बाएं
छी ..........ध्यान भंग कर देता है
शून्य की उपासना में खलल डाल देता है
मेरा इष्ट दूर हो जाता है
रात भर की खोज
सुबह होते ही
फिर मजबूर कर देती है
नए रास्ते की तलाश के लिए
लेकिन मंजिल एक ही है
रास्ता दुर्गम और सहज दोनों ही
Comment
बहुत खूब संदीप जी.
एक दम अकेला होता हूँ
मार्ग वीरान होता है
आने वाले तूफ़ान से बेफिक्र
कुछ भी नहीं दिखता
सिवाए चलने के
सहर होते ही रुक जाता हूँ
क्यूंकि मुझे एकाकी रहना भाता है ,सदीप जी ,अति सुंदर भाव लिए हुए रचना ,बधाई
वाह बेहतरीन बहुत उम्दा संदीप बधाई.....
जय हो संदीप जी........
एक साया है जो मेरा पीछा नहीं छोड़ता
निरंकुश है
कहना मानता ही नहीं
कभी आगे कभी पीछे
कभी दायें कभी बाएं
छी ..........ध्यान भंग कर देता है
__क्या बात है
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