(चार चरण, १६ + १२ =२८ मात्राएं और अंत में लघु गुरु)
हरि जनम हो मन आस लेकर, भीड़ भई अपार है/
हरि भजन गुंजत चहुँ दिसी अरु,भजत सब नर नार हैं//
झांझ बाजै है झन झनक झन , ढोल की ठपकार है/
मुरली बाजत मधुर शंख ही, गुंजाय दरबार है//
हरि घन घनन घन आसमा पर, जोर की बरसात है/
मन मेरा पर आँखे मीचे, प्रभु दरस की आस है//
सजे द्वार सुन्दर घर सकल, नगर कारागार है/
सजे श्याम सुन्दर हर हरिहर, सजा हरि दरबार है//
Comment
आद. अशोक रक्ताले साहब, आपका प्रस्तुत प्रयास ’हरिगीतिका’ छंद पर हुआ आपका संभवतः प्रथम प्रयास है. इस हेतु पहली बधाई.
दूसरी पंक्ति का सम भजत सब नर-नार है का तुकांत नहीं बन पारहा है. एकवचन का ’है’, बहुवचन ’हैं’ से भिन्न है न ?
इस मंच पर प्रस्तुत हुई पूर्व हरिगीतिकाएँ आपके सद्-प्रयास को संबल देंगीं. आपके इस छंद-प्रयास पर पुनः बधाई.
सादर
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