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हरिगीतिका छंद एक प्रयास.

(चार चरण, १६ + १२ =२८ मात्राएं और अंत में लघु गुरु)

 

हरि जनम हो मन आस  लेकर, भीड़ भई  अपार  है/

हरि भजन गुंजत चहुँ दिसी अरु,भजत सब नर नार हैं//

झांझ बाजै है झन झनक झन , ढोल की  ठपकार  है/

मुरली बाजत  मधुर  शंख  ही,  गुंजाय   दरबार  है//

हरि घन घनन घन आसमा पर, जोर की बरसात है/

मन मेरा पर  आँखे  मीचे, प्रभु दरस  की  आस है//

सजे  द्वार  सुन्दर  घर  सकल, नगर  कारागार  है/

सजे श्याम सुन्दर  हर  हरिहर, सजा हरि दरबार है//

 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 5, 2012 at 9:55am

आद. अशोक रक्ताले साहब, आपका प्रस्तुत प्रयास ’हरिगीतिका’ छंद पर हुआ आपका संभवतः प्रथम प्रयास है. इस हेतु पहली बधाई. 

दूसरी पंक्ति का सम भजत सब नर-नार है  का तुकांत नहीं बन पारहा है. एकवचन का ’है’, बहुवचन ’हैं’ से भिन्न है न ? 

इस मंच पर प्रस्तुत हुई पूर्व हरिगीतिकाएँ आपके सद्-प्रयास को संबल देंगीं. आपके इस छंद-प्रयास पर पुनः बधाई.

सादर

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