अमीरी
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी
सपनो की दुनिया मेरी आँखे मूँद सो गयी …
चार आने जेब में रखकर
दुनिया लेने जाते थे
चार आने में चार गोलियां
संतरे वाली लाते थे
चार चवन्नी रख गुल्लक में
उसको रोज़ बजाते थे
चार रुपये हो जाए तो एक
नयी गुल्लक ले आते थे
चार आने की खनक चार कंधो पे सो गयी
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी …
छोटे छोटे कंधो पर
दुनिया भर का बोझ था
चार किलो का बस्ता लेकर
स्कूल को जाना रोज़ था
बस्ते से पेंसिल रबर का
अक्सर ही गुम जाना था
पुराने बस्ते में नयी किताबें
नए ढंग से सजाना था
बज गयी घंटी छुट्टी स्कूल की हो गयी
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी …
बड़े बनने के बड़े तरीके
बिस्तर पर ही आते थे
खुली आँखों से देख कर सपने
झट से हम सो जाते थे
पापा के जूते पहन पाँव में
पैदल ही चल जाते थे
छोटे चहरे पर बड़ी सी मूंछे
काजल से हम बनाते थे
काजल की वो काली मूंछे अब सफ़ेद सी हो गयी
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी ….
Comment
@ Rekha Joshi dhanywaad rekha ji
बड़े बनने के बड़े तरीके
बिस्तर पर ही आते थे
खुली आँखों से देख कर सपने
झट से हम सो जाते थे
पापा के जूते पहन पाँव में
पैदल ही चल जाते थे
छोटे चहरे पर बड़ी सी मूंछे
काजल से हम बनाते थे
काजल की वो काली मूंछे अब सफ़ेद सी हो गयी
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी ….
अति सुंदर रचना रणवीर जी ,बचपन के दिन भी क्या दिन थे ,हार्दिक बधाई
@sonamsaini dhanywaad sonam ji...
आपने तो बचपन की याद दिला दी रणवीर प्रताप सिंह जी,
इतनी सुंदर रचना , सच में बचपन में हम कितने अमीर थे
बहुत बहुत बधाई आपको..........
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