For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

 

आज लगते ही तू लगता है चीखने
"आ ज़ाऽऽऽ दीऽऽऽऽऽऽऽऽ...."
घोंचू कहीं का.
मुट्ठियाँ भींच
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. मतिमूढ़ !

 

पता है ?........
तेरी इस चीखमचिल्ली को
आज अपने-अपने हिसाब से सभी
अपना-अपना रंग दिया करते हैं.. .
हरी आज़ादी.. .सफ़ेद आज़ादी.. . केसरिया आज़ादी...
लाल आज़ादीऽऽऽ..
नीली आज़ादी भी.

 

कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..

 
और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है
निर्बुद्धि .... !

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?

********

--सौरभ

Views: 1108

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Albela Khatri on August 23, 2012 at 10:19pm

आदरणीय सौरभ जी.......
आपकी लेखनी की नोंक से निपजे-उपजे सृजनांकुरों को आने वाले दौर में जनमानस के खेतों में उन्नत फसल के रूप में लहलहाते हुए देख कर  हम जैसे  बालकों को  बड़ी ख़ुशी होगी.....आपके विराट शिल्प सामर्थ्य  और अथाह शब्दकोष के दर्शन मात्रा से हम पुलकित  हैं

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 23, 2012 at 10:16pm

आदरणीया सीमाजी, आपने कविता के मर्म को गहनता से स्पर्श किया है. आपके प्रबुद्ध इंगित प्रस्तुत रचना को पूर्णतः संतुष्ट करते हुए हैं.

आपकी संलग्नता के लिये सादर आभारी हूँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 23, 2012 at 10:09pm

भाई अलबेला जी, आपकी विशद टिप्पणी ने अभिभूत कर दिया है.  आपकी रचनाधर्मिता तथा वाचनप्रबुद्धता को मेरा सादर आभार व नमस्कार.

Comment by seema agrawal on August 23, 2012 at 9:30pm

एक आम इंसानी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं  का सजीव चित्र  
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. वाह !!!!भावों  का आवेश भी और अतिरेक भी ..यह स्थिति किसी   मतिमूढ़ की ही हो सकती है 
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है 
निर्बुद्धि .... !...............................सच कहा सौरभ जी आज हमारा देश सिर्फ आबादी ही होता जा रहा है 

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ...........निर्बीज भावनाएं ...वाह !!!कहाँ कहाँ ठोकर नहीं दी आपकी रचना ने जिन भावनाओं को कभी फलित होते नहीं देखा उनमे बीज कहाँ ....प्रश्न तो ये भी है कि वो उपजी ही कैसे 

पर आम इंसान तो बस खुश होना चाहता है बहाना कोई भी हो चीखना चाहता है फ़साना कोई भी हो 
सो खुश भी होता है दिल से चीखता भी है दिल से (सच कहूँ तो दिल से जश्न उसी के दिल में होता है )
हमेशा के तरह अनूठी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई सौरभ जी 

Comment by Albela Khatri on August 17, 2012 at 10:29am

क्या कहने........

क्या कहने  आपकी  मर्मभेदी भाषा के

क्या कहने आपके आगनुमा  आवेश के

क्या कहने आपके  चमकदार तेवर के

__हाय हाय हाय  हाय


आज लगते ही तू लगता है चीखने
"आ ज़ाऽऽऽ दीऽऽऽऽऽऽऽऽ...."
घोंचू कहीं का.
मुट्ठियाँ भींच
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. मतिमूढ़ !


ये आज जब भी लगता है . एक जूनून सा छा जाता है चन्द घण्टों के लिए आज़ादी का..वो आज़ादी जिसकी बारात  को डाकुओं ने नहीं, ख़ुद  कहारों ने  ही लूट लिया  और  नाम दे दिया गणतंत्र का / लोकराज  का

पता है ?........
तेरी इस चीखमचिल्ली को
आज अपने-अपने हिसाब से सभी
अपना-अपना रंग दिया करते हैं.. .
हरी आज़ादी.. .सफ़ेद आज़ादी.. . केसरिया आज़ादी...
लाल आज़ादीऽऽऽ..
नीली आज़ादी भी.

सब आज़ाद है अपने अपने  स्वार्थों के लिए.........आग लगाने वाला भी और उसे भड़काने  वाला भी ....दमकल का रास्ता रोकने वाला भी आज़ाद है और इस आग को बेच कर  दाम कमाने वाला भी........सभी रंग आज़ाद हैं सिवा  मोहब्बत के गुलाबी रंग के........सत्य सा पारदर्शी  और बेरंग झंडा लगाने वाला डंडा  तोड़ कर  अपना अपना झूठ फहराने को सभी आज़ाद हैं 

कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..


ये सिर गिनने वाले  काटते  भी निर्ममता से हैं सरों को.........दिखने में ज़हीन, लेकिन हकीकत में कमीन ये लोग कटिबद्ध हैं समूची मानवता  को  काट खाने के लिए...........इनके दांत नुकीले ही नहीं, ज़हरीले भी हैं


और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है
निर्बुद्धि .... !

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?

********

--सौरभ

निर्बीज  भावनाएं अपना नपुंसक  संस्कार लिए डोल रही हैं ....साजिशें  भितरघातियों की सर चढ़ कर बोल रही हैं.........ऐसे में सौरभ जी की यह अनुपम कविता  धमनियों में  उबाल घोल रही हैं...........इस घिनौने व्यापार  और लिजलिजे  लोकराज के  वक्ष पर  राष्ट्र का ध्वज फहराने के लिए  डंडा  आपने थमाया है गुरूदेव.,.............ज़रा भी शर्म होगी  उन्हें तो इस डंडे का प्रयोग  भारत के  स्वाभिमान और ऐश्वर्य  की रक्षा में किया जाएगा

वैसे कहना मत किसी से ,  वे लोग  हैं बहुत ढीठ..........इन गैन्डों को  गुदगुदी करने के लिए  ऊँगली नहीं, लट्ठ की  ज़रूरत पड़ेगी...........

आदरणीय सौरभ जी,  धन्य हैं आप और आपकी कलम

आपकी लेखनी को  मेरे इक्कीस सलाम !

जय हिन्द !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 17, 2012 at 9:32am

आदरणीय भ्रमरजी, आप प्रस्तुत रचना से सामञ्जस्य स्थापित कर पाये यह मेरे लिये भी सौभाग्य की बात है.  आदरणीय, पद्य रचनाएँ बिम्बों /प्रतीकों और इंगितों को साधन बना कर संप्रेष्य होती हैं. सपाटबयानी पद्य की मूल भावना को ही ख़ारिज कर देती है. रचनाकारों और पाठकों में पद्य-संस्कार का सकारात्मक भाव बने इस हेतु ओबीओ प्रबन्धन सदैव मंथन की प्रक्रिया को मान देता रहा है.

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?

इस पद्यांश में ’मुद्रा’ का अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा करेंसी है. वैसे शारीरिक भंगिमा को भी ’मुद्रा’ ही कहते हैं.  

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 17, 2012 at 9:26am

डॉ.प्राची, आपने रचना को अनुमोदित कर मान बढ़ाया है, सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 17, 2012 at 9:24am

आदरणीया राजेशकुमारीजी, आपको मेरी रचना के कथ्य और शैली पसंद आयी, इस हेतु आपका आभार .. . 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 16, 2012 at 6:29pm

आदरणीय सौरभ जी जय श्री राधे बहुत सुन्दर समझाया आपने ...अब बात समझ में आई ...जब तक कहीं भी किसी शब्द में अटके हों और बाहर  न निकलें ...भाव रचना के इधर उधर भटक जाते हैं इस लिए जिज्ञासा शांत किया ..बधाई ...

शातिर जमात के इसी स्वार्थ ने देश को बँटवारे का दंश दिया. इसी घृणित स्वार्थियों के कारण हज़ारों ज़िन्दगियाँ बँटवारे के समय लाशों में तब्दील हुईं. लाखों ज़िन्दग़ियाँ बेघर हुईं....आप के धनी शब्द के तो हम सब कायल हैं 

भ्रमर ५ 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2012 at 3:26pm
आदरणीय सौरभ सर,
आपके द्वारा निम्न टिप्पणियों में दिए गए विवरण को पढ़ा, इस रचना को मैं कई आयामों से पढ़ कर देख रही थी,
एक बार लगा की शायद ये संबोधन 'आज़ाद कश्मीर '  (Pak Occupied Kashmir )  के रहनुमाओं के लिए है... जो अपनी सारी शक्ति आका संगठनों की सोच पर कुर्बान कर कर जिहाद जिहाद चिल्लाते हैं...
दुबारा पढ़ा तो लगा सामान्य सुप्त जन मानस के लिए संबोधन है...
इसलिए इसे समझ नहीं पाई..
पर अब पुनः पढ़ा तो लगा यह, हर उस शख्स के लिए है, जो अब तक अज्ञानता में निर्भाव सुप्त है.. और स्वार्थलिप्त लहर उसे जँहा चाहे बहाए लिए जा रही है..
 
ऐसी संवेदनात्मक गूढ़ रचना आपकी कलम ही लिख सकती है.  हार्दिक साधुवाद स्वीकारें .

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
13 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गीत का प्रयास अच्छा हुआ है। पर भाई रवि जी की बातों से सहमत हूँ।…"
13 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

अच्छा लगता है गम को तन्हाई मेंमिलना आकर तू हमको तन्हाई में।१।*दीप तले क्यों बैठ गया साथी आकर क्या…See More
22 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहते हो बात रोज ही आँखें तरेर कर-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार। यह रदीफ कई महीनो से दिमाग…"
yesterday
PHOOL SINGH posted a blog post

यथार्थवाद और जीवन

यथार्थवाद और जीवनवास्तविक होना स्वाभाविक और प्रशंसनीय है, परंतु जरूरत से अधिक वास्तविकता अक्सर…See More
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"शुक्रिया आदरणीय। कसावट हमेशा आवश्यक नहीं। अनावश्यक अथवा दोहराए गए शब्द या भाव या वाक्य या वाक्यांश…"
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"परिवार के विघटन  उसके कारणों और परिणामों पर आपकी कलम अच्छी चली है आदरणीया रक्षित सिंह जी…"
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आ. प्रतिभा बहन, सादर अभिवादन।सुंदर और समसामयिक लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।"
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आदाब। प्रदत्त विषय को एक दिलचस्प आयाम देते हुए इस उम्दा कथानक और रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया…"
Monday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आदरणीय शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। शीर्षक लिखना भूल गया जिसके लिए…"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"समय _____ "बिना हाथ पाँव धोये अन्दर मत आना। पानी साबुन सब रखा है बाहर और फिर नहा…"
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service