आज लगते ही तू लगता है चीखने
"आ ज़ाऽऽऽ दीऽऽऽऽऽऽऽऽ...."
घोंचू कहीं का.
मुट्ठियाँ भींच
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. मतिमूढ़ !
पता है ?........
तेरी इस चीखमचिल्ली को
आज अपने-अपने हिसाब से सभी
अपना-अपना रंग दिया करते हैं.. .
हरी आज़ादी.. .सफ़ेद आज़ादी.. . केसरिया आज़ादी...
लाल आज़ादीऽऽऽ..
नीली आज़ादी भी.
कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..
और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है
निर्बुद्धि .... !
जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?
********
--सौरभ
Comment
भाई भ्रमरजी, आज लगते ही तू लगता है चीखने .. का सामान्य अर्थ यह हुआ कि ’आज’ यानि पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी आदि-आदि जैसे ऐतिहासिक दिनों के होते ही (यानि उनके ’लगते ही’) आम, भावुक बहुसंख्य जनता (सामान्य नागरिक/ आम आदमी) भावावेश और भावातिरेक में उत्साह से भर कर ऊर्जस्वी हो जाती है.
इस कविता में, भ्रमरजी, इसी आम आदमी की भोली भावनाओं और देश के प्रति उसके कृतज्ञ प्रेम को यूज (use) करनेवालों की जमात कैसे-कैसे अर्थ देती अपने स्वार्थ की पूर्ति करती जा रही है का दुख-दर्द यह कह कर उभारने का प्रयास हुआ है कि आम आदमी कब तक मति से मूढ़ हुआ, बुद्धि से अंधा हुआ उपयोगित होता रहेगा. शातिर जमात के इसी स्वार्थ ने देश को बँटवारे का दंश दिया. इसी घृणित स्वार्थियों के कारण हज़ारों ज़िन्दगियाँ बँटवारे के समय लाशों में तब्दील हुईं. लाखों ज़िन्दग़ियाँ बेघर हुईं. इसी स्वार्थी जमात के कारण देश में आज भाषा, सीमा, वर्ग, जाति भेद उत्पन्न किया गया है. देश में भ्रष्टाचार और लूट का अनकहा रूप दिख रहा है. एक आम आदमी को हमेशा-हमेशा भावनाओं की चाशनी वाले लॉलीपॉप से भरमाया जाता रहा है. आम आदमी को इसी भावुकता से बाहर आ कर तथ्यपरक दृष्टि से स्वार्थियों की कारगुजारियों को समझने की अपील करती है यह कविता.
सादर
आदरणीय उमाशंकरजी, आपका कविता की पंक्तियों को मान दिया जाना मुझे मानसिक संबल दे गया.
भाई राजेश कुमार जी, हार्दिक आभार.
भाई अजीतेन्दुजी, आपको पम्क्तियों की तल्खियाँ अपील कर पायीं, मेरा हार्दिक आभार स्वीकार करें.
डॉ. प्राची, आपकी संवेदनशीलता तथा आपका रचनाकर्म संतुष्ट करते रहे हैं. आपका शालीन धीरज ही इस सफल प्रयास की कुंजी है. इसी धीरज से कृपया रचनावाचन करें. विश्वास करें, तथ्य रचनाओं का भाव स्पष्ट होता जायेगा.
बहरहाल, आपने लेखन कर्म को मान दिया आभारी हूँ.
सादर.
भाई लक्ष्मण प्रसाद जी, आपको इस कविता की अंतर्धारा पसंद आयी, सादर धन्यवाद स्वीकारें.
जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है..
आदरणीय सौरभ जी ..गूढ़ भावों के साथ तीखा प्रहार , कटाक्ष, करती ये रचना बहुत कुछ कह गयी ...सोचने पर विवश करती
आदरणीय सौरभ जी आपके हौसले को सलाम
अत्यंत गहरी बात आपने इस रचना में प्रस्तुत किया
आपके इस कटाक्ष को सादर नमन
एक बहुत ही भयंकर दर्द को सामने लाया
आपकी निगाहों को नमन
'जानता भी है कुछ इस घिनौने व्यापार में/तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.....बहुत उम्दा लेखन है, सादर
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