खूँटी पे लटकी
खाली पोटली
मुँह ताक रही है
कोई आएगा
जो झाड़ देगा
इसमें जमी धूल
बिलकुल वैसे ही
जैसे मुक्तिबोध
की कोई कविता
टंगी हो
समीक्षक के
इंतज़ार में
लेकिन उसे नहीं पता
अब कोई नहीं छेड़ेगा
उस खाली पोटली को
क्यूंकि वो एंटीक है
उसे म्यूजियम में रखा जायेगा
प्रदर्शनी की सोभा सा
क्यूँ कोई जीर्ण-उद्धार करेगा
फिर उदाहरण के लिए
क्या दिखाएगा
कुछ भी नहीं
अब तुम दुष्यंत की
ग़ज़ल भी तो नहीं हो
जो सीधे सीधे उतर जाए
दिल में
और न ही निराला की
हिंदी मुक्तिका
तुम तो हो हिंदी और उर्दू के
मिक्सचर जैसे
कन्फ्यूज़ सी
देखना म्युसियम में भी
लोग ताने देंगे
क्या इसे ही मुफ्लिशी कहते हैं ?????
हाय ये बेकारी
ये बेरोजगारी
और खूँटी रोएगी
तुम्हारा बोझ उठा के
उसे नसीब न होगा कभी
सफाई का कपड़ा
बेकार हो तुम
बिलकुल बेकार
इस देश में स्ट्रगल कर रहे
नए कवी की तरह
जैसे "दीप"
समझे
और कारण तुम जानती हो
इतने सुदामा हैं
लेकिन कृष्ण नहीं
संदीप पटेल "दीप"
Comment
एक मकाम हासिल करने के लिए स्ट्रगल तो करना ही पड़ता है .....बहुत सही लिखा अच्छी रचना
bhut hi umda rachna....
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