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"लिखते लिखते"

जमीं पे चाँद तारे
सूरज 
सब हैं दिखते
लिखते लिखते
नदियाँ, पहाड़, झरने
हाथी-घोड़ा
शेर, भालू, हिरने
कभी सजर
कभी जड़
कभी फल
तो कभी दीमक 
दीमक
कैसा सच है दीमक का
शनैः शनैः चांट जाती है
सारा का सारा दरख्त
खोखला कर देती है
भीतर से
बहार से खूबसूरत सजर
भीतर ही भीतर
दम तोड़ देता है
वैसे ही
जैसे
अपशब्द और अशोभनीय
भाषाशैली
साहित्य के आदित्य पे ग्रहण
घोर अन्धकार
हर ओर
किन्तु अंधापन भाता है
कुछ चापलूसों को
चाटुकारों को
उन्हें रौशनी की जरुरत है
वैसे ही
जैसे
घोर अन्धकार को चाहिए हो 
अगरबत्ती का उजाला
खुशबूदार धुंध
हकीकत से परे
भक्ति में लीन
भक्त शैतान भगवान्
सब दिखते
आदमी छोड़ के
लिखते लिखते

संदीप पटेल "दीप" 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 12, 2012 at 4:37pm

 बहुत सही अच्छी भंवो के रचना :-

 दीमक अन्दर ही अन्दर सब से खोखला कर देती 

बहार से खूब सूरत अन्दर से शनैः शनैः सब चाट जाती |

पर कवि की पैनी नजर, सब देखती कहती समझाती | 

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