दो कदम चलके रुक गए वो सफ़र क्या
जहां लौट के न जाया जाए वो घर क्या
जो नहो उसकी इनायत तो मुकद्दर क्या
कि बुरा क्या बद क्या और बदतर क्या
जो न जाए तेरे दरको वो राहगुज़र क्या
और जहां पड़े न तेरे कदम वो घर क्या
तेरे बगैर सल्तनत क्या दौलतोज़र क्या
जो नहुआ तेरा असीरेज़ुल्फ़ वो बशरक्या
देखती हैं यूँ हजारहा निगाहें शबोरोज़ हमें
जो दिल को न चीर जाए वो नज़र क्या
ज़िंदगी जिस तरहा हो मुसर्रत अंगेज़ हो
वो हो सौ साल याकि हो मुख़्तसर, क्या
है मर्गको लिहाज़ेजीस्त तो बावक्त आए
गर आ भी जाए बिलावक़्त, तो डर क्या
डूबके ही जब मरना है तेरी आँखोंमें हमें
हो वो आगका दर्या या मौजेसमंदर क्या
इज़हारेशौक तुझ से कोई शायरी नहीं थी
जो कहदिया उसको फरमाएं मुकर्रर क्या
न काफिए की पर्वा न रदीफ़ की है हाज़त
गुफ्तगूबराएऔरत को ज़मीनोबहर क्या
तेरी तासीरेदर्देइश्क ने मुझे ज़िंदा रखा है
जोतू अपने हाथसे खिलाए तो ज़हर क्या
राज़ दानिशमंद हैं, पे तेरे नाज़ से हैं हारे
कभी तू कहे आ कभी तू कहे ठहर, क्या
© राज़ नवादवी
रात्रिकाल ०१.१९ भोपाल १८/०९/२०१२
दौलतोज़र – धन-दौलत; असीरेज़ुल्फ़- नायिका की केशराशि का बंदी; बशर- व्यक्ति, आदमी; शबोरोज़- रात-दिन; मुसर्रतअंगेज़- हर्षप्रद; मुख़्तसर- संक्षिप्त; मर्गको लिहाज़ेजीस्त- मौत को ज़िंदगी का लिहाज़; इज़हारेशौक- प्रेम निवेदन; मुकर्रर- पुनः; दुबारा; हाज़त- ज़रूरत; गुफ्तगूबराएऔरत- गज़ल का शाब्दिक अर्थ स्त्री से वार्तालाप करना; तासीरेदर्देइश्कने- प्रेम की पीड़ा के प्रभाव ने; दानिशमंद- अक्लमंद;
Comment
आपका बहुत बहुत शक्रिया शशि जी!
भाई प्रमेन्द्र, एक ओर जहाँ मैं आपके सताइश भरे अलफ़ाज़ के लिए आपका एहसान जताता हूँ, वहीँ मुझे इनसे बेहद तअम्मुल (संकोच) भी महसूस हो रहा है. दरअसल आपके जज़्बात की पूरी क़द्र करते मैं ये कहना चाहता हूँ कि मैं इक नाचीज़ ही हूँ और मुझे वहीँ रहने दें. लिहाजा दो शेर फरमाता हूँ-
न उठाओ अर्शपे हमें यूँ ऊँचा कि तुम्हें भी करनी हो बाला निगाहें;
दूरियां इतनीही अच्छी होती हैं दरम्याँ कि छू लें एक दूसरे की बाहें.
और-
न कहो हमें कोहेनूर कि हम अभी वतन में हैं
वक्त आगे हमें कहाँ लेजाएगा ये देखा जाएगा
आपका राज़ !
है मर्ग को लिहाज़ ए जीस्त तो बावक्त आये , ग़र आ भी जाये बिलावक्त तो डर क्या... राज़ साहब हमारे शब्द ख़त्म हो रहे हैं और सर सजदे में झुक रहे हैं, आप इस मंच कोह ए नूर हैं आप का कोई सानी नहीं, मैं सच कहता था आप इस ज़माने ही नहीं सदियों के शायर हैं.. पहली ग़ज़ल पढ़कर दिल संभला भी न था की इस ग़ज़ल ने इसे तार तार कर दिया...... शायरों की कौम को आप पर है नाज़....
तेरी तासीरेदर्देइश्क ने मुझे ज़िंदा रखा है |
जोतू अपने हाथसे खिलाए तो ज़हर क्या || khyaal achhe hain
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