आमदनी घट रही है,होंठों से मुस्कान की तरह.
और खर्चे बढ़ रहे है, चौराहे पे दूकान की तरह.
भले ही रहते है यारों हम आलीशान की तरह.
पर हालत हो गयी है अपनी भूटान की तरह.
अरे किस से सुनाये दर्द,जब सबका यही हाल है.
ये बेबस जिंदगी उधार की,बस जी का जंजाल है.
बड़ी मुश्किल से लोग,हंसने का रस्म निभाते है.
वरना चुटकुले भी आँखों में आंसू भर के जाते है.
खुशिया लगती है सुनी,मातम के सामान की तरह.
और हालत हो गयी है अपनी, भूटान की तरह.
महंगाई के खौफ में,क्या खाक मजा है जीने में.
हसरतें बेजान होकर सड़ रही है सीने में.
आज एक लड़ाई खुद से ही लड़ रहा है आदमी.
थका-थका है फिर भी आगे बढ रहा है आदमी.
दिन-ब-दिन मिट रहा सुकून भी, ईमान की तरह.
और हालत हो गयी है अपनी, भूटान की तरह.
Comment
बहूत बहूत धन्यवाद लक्ष्मण जी..
बहूत बहूत धन्यवाद केशरी जी..
बहुत खूब
वर्त्तमान परिदृश्य को आपने बहुत सच्चे और सार्थक शब्दों से साकार किया है
दिन-ब-दिन मिट रहा सुकून भी, ईमान की तरह.
बहुत बहुत बहुत खूब
आज एक लड़ाई खुद से ही लड़ रहा है आदमी.
थका-थका है फिर भी आगे बढ रहा है आदमी.
सादर धन्यवाद राजेश जी.......हौसला अफजाई के लिए
महंगाई के खौफ में,क्या खाक मजा है जीने में.
हसरतें बेजान होकर सड़ रही है सीने में.
आज एक लड़ाई खुद से ही लड़ रहा है आदमी.
थका-थका है फिर भी आगे बढ रहा है आदमी----वाह वाह बहुत बढ़िया सामयिक कविता जबरदस्त लिखा बहुत बधाई नूरेन अंसारी जी
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