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दुर्मिल सवैया छंद

नहि भेद लिखे कछु वेद कवी सब गाल बजावत मंचहि पे
निज वेशहि की परवाह करें बस ध्यान धरें धन संचहि पे
अब ब्रम्ह बने सूतहि जब है सब ज्ञान बखान विरंचहि पे
कलि कौतुक देख हसे सुर है गुरु बैठत है अब बेंचहि पे

कलिकाल धरा विकराल बढ़ा सुत मातु पिता नहि मानत है
धन की महिमा सब ओर सखे धनही सबका पहिचानत है
घर की नहि नारिहि मान करे ललचाय पराय अमानत है
सनदोह सहोदर मोह नही अब दारहि का सब जानत है


चिदानन्द शुक्ल "सनदोह"

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 24, 2012 at 8:28pm

सुन्दर भाव चिदानंद जी, इस अभिव्यक्ति पर बहुत बहुत बधाई और दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें |

Comment by रविकर on October 24, 2012 at 12:28pm

शुभ विजया ||
सादर -


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 24, 2012 at 11:42am

वाह चिदानंद जी बहुत सुन्दर दुर्मिल  सवैया लिखी है बहुत बहुत बधाई 

Comment by Chidanand Shukla on October 22, 2012 at 3:33pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी बिलकुल सही कहा आपने यहाँ पर हमारा ध्यान नही गया था अब पुनः सुधर के साथ पेश है 
 
 
नहि भेद लिखे कछु वेद कवी सब गाल बजावत मंचहि पे 
निज वेशहि की परवाह करें बस ध्यान धरें धन संचहि पे
अब ब्रम्ह बने जब सूतहि है सब ज्ञान बखान विरंचहि पे 
कलि कौतुक देख हसे सुर है गुरु बैठत है अब बेंचहि पे 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 22, 2012 at 12:15pm

चिदानन्द जी, प्रयासरत रहें. वर्ण गणना के अभ्यास हित रचना उचित है.

यहाँ गणना पुनः कर देखें कि क्या ’सलगा’ की नियमानुरूप आवृति का निर्वहन हो पाया है ? -

अब ब्रम्ह बने सूतहि जब है सब ज्ञान बखान विरंचहि पे

शुभेच्छा

Comment by रविकर on October 22, 2012 at 11:21am

बहुत सुन्दर छंद |
बधाई आदरणीय ||

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