मेरे घर में आँगन नहीं है,
देहरी और दहलीज नहीं है ,
दरवाजे से सांखल गायब ,
दस्तक देती तहजीब नहीं है ,
मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है
|
मेरे घर की पास की गलियां ,
जब तब रोतीं हैं बिन घूँघट के,
किसी के आने की उम्मीद लगाये,
रात को भी ये जागती रहती हैं ,
मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है
वर्तमान को पोषित करती भर्मित दीवारें,
कुछ नहीं कहती चुप रहतीं हैं ,
वर्तमान पर भविष्य हँसता है
क्योंकि अब जीने से मरना सस्ता है ,
मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है
मेरे घर में आँगन होता था ,
आँगन में पंछी चह - चहकाते थे ,
दादी के चरखे की तान को सुनने ,
भौर की लाली में आ जाते थे,
संस्कारों की खुशबू फैली थी ,
मेरा घर इंसानों की बस्ती में था
मेरे घर मे माँ रहती थी,
माँ के दिल में सब रहते थे ,
सब के बीच में सब रहते थे,
प्यार से सब को अपना कहते थे ,
मेरा घर इंसानों की बस्ती में था|
वीर प्रकाश ‘पांचाल’
आर .सी ऍफ़ .कपूरथला (पंजाब )
Comment
क्या बात है ..बहुत बहुत बधाई
इस विचार प्रवाह के प्रति मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ, भाई पांचालजी.. .
अति सुन्दर! बहुत बहुत बधाई.
वाह पांचाल जी!
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