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पत्थरों के शहर में

 

मेरे घर  में आँगन नहीं है,

देहरी और  दहलीज नहीं है ,

दरवाजे से सांखल गायब ,

दस्तक  देती तहजीब  नहीं है ,

मेरा घर पत्थरों  के शहर में बसता है

|                                     

मेरे घर की पास की गलियां  ,

जब तब रोतीं हैं बिन घूँघट के,

किसी के आने की उम्मीद लगाये,

रात को भी ये  जागती रहती हैं ,

मेरा घर पत्थरों  के शहर में बसता है

 

वर्तमान को पोषित करती भर्मित  दीवारें,

कुछ नहीं कहती चुप  रहतीं हैं ,

वर्तमान  पर भविष्य हँसता है

क्योंकि अब जीने से मरना सस्ता है ,

मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है

 

मेरे घर में आँगन होता था ,

आँगन में पंछी  चह - चहकाते  थे ,

दादी  के चरखे की तान को सुनने ,

भौर की लाली में आ जाते थे,

संस्कारों की खुशबू फैली थी ,

मेरा घर इंसानों  की बस्ती में था

 

मेरे घर मे माँ रहती थी,

माँ के दिल  में सब रहते थे ,

सब के बीच में  सब रहते थे,

प्यार से सब को अपना कहते थे ,

मेरा घर इंसानों की बस्ती में था| 

वीर प्रकाश पांचाल

आर .सी ऍफ़ .कपूरथला (पंजाब )

 

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Comment

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Comment by AJAY KANT on November 2, 2012 at 10:45pm

क्या  बात  है ..बहुत  बहुत  बधाई


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 2, 2012 at 11:08am

इस विचार प्रवाह के प्रति मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ, भाई पांचालजी.. .

Comment by Vinita Shukla on November 2, 2012 at 8:48am

अति सुन्दर! बहुत बहुत बधाई.

Comment by राज़ नवादवी on November 1, 2012 at 9:41pm

वाह पांचाल जी!

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