शाम हो रही थी साहब घर जाने के लिए निकले और जाते जाते रामदीन को मेरी जिम्मेदारी सौंप गये. रामदीन को भी घर जाना था इसलिए उसने जल्दी से मुझे नीचे उतरा और झाड़ा झटका, अचानक मुझ पर पडी गर्द रामदीन से जा चिपकी, वह झुझला गया जैसे उसके शरीर पर धूल न चिपक गई हो बल्कि उसकी आत्मा से ईमानदारी जा चिपकी हो. उसने तुरंत अपने गमछे से सारे शरीर को झाड़ा और एक बार आईने में भी देख आया, उसे लग रहा था जैसे इमानदारी अब भी उससे चिपकी रह गई है. उसने मुझे तह किया और अलमारी में रख दिया.
***
रामदीन ने बहुत दिन के बाद मुझे अलमारी से निकला, मैंने देखा कैलेण्डर के कई पन्ने पलते जा चुके हैं. अगस्त ! तो क्या पन्द्रह अगस्त आ गया ? उसने मुझे फिर से झाडा झटका, गर्द तो एक बार फिर से उस पर चिपका चाहती थी मगर गरीब रामदीन इस बार सावधान था, उसे पता था कि वो यह बोझ नहीं उठा सकता.
साहब आ चुके हैं, दस बजे ध्वजारोहण होगा.
Comment
वीनस जी,
थोड़ी सी टाइपिंग की अशुद्धी है, उसे सही कर दें |
१. "रामदीन ने बहुत दिन के बाद मुझे अलमारी से निकला", यहाँ निकला की जगह निकाला कर दें
२. "मैंने देखा कैलेण्डर के कई पन्ने पलते जा चुके हैं" यहाँ पलते की जगह पलटे होना चाहिए|
३. "गर्द तो एक बार फिर से उस पर चिपका चाहती" यहाँ चिपका की जगह चिपकना है शायद |
इस तरह की अशुद्धी मुझसे भी कई बार होती है, लेकिन भला हो ओबीओ का कि यहाँ निराकरण का ऑप्शन मौजूद है|
''झूठा है इस लघुकथा का लेखक, जो यह कहता है की यह उसकी पहली लघुकथा है।''(एक मजाक) :) कथ्य और शिल्प दोनों ही इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वह उतावले बैठे थे कि कब वीनस अपनी पहली लघुकथा लिखे और हम तपे सोने की तरह ओ बी ओ पर जड़ जाएँ।
चन्द्रेश जी शुक्रिया
धन्यवाद आदरणीय
डॉ. बाली साहिब सही कहा आपने आजकल इस गर्द को लोग बहुत हिकारत की नज़र से देखते हैं
बहुत उम्दा (लघु) कथा है | सच्चाई और ईमानदारी वास्तव में गर्द खा रही है|
वीनस भाई आजकल ईमानदारी को लोग ऐसे झाड पोंछ कर आलमारी में रखते हैं...साथ लेकर चलाने में दर है कहीं कोई चुरा न ले......हाहाहाहाह ...बहुत बढ़िया बिम्ब लेख ! बधाई स्वीकार करें !
सौरभ जी हार्दिक धन्यवाद
//मगर गरीब रामदीन इस बार सावधान था, उसे पता था कि वो यह बोझ नहीं उठा सकता.//
एक अलग ज़मीन और लहज़े की लघुकथा. झण्डे की आँखों से बेहतर दिखा कि कर्मकाण्ड कितना हावी होता जा रहा है !
बधाई, भाई वीनसजी.. .
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