तुम शीतल, ग्रीष्म, उभय तापी;
तुम बहुप्रकार, तुम बहुरंगी !
हो रंग, रूप व ताप कोई,
पर थकित जनों की हो संगी !
हो जग के हित में तत्पर तुम, तुममे क्यों दोष बताऊंगा !
अमृत समान हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !
लगभग दुनिया में छाई तुम,
इक नाम नया, कुछ रूप नया !
भारत में तो पाया तुमको,
जिस राज्य, नगर या गाँव गया !
हे विश्वव्यापिनी प्राणप्रिये, छोड़ तुम्हे कहाँ जाऊंगा ?
अमृत समान हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !
इक रूप तुम्हारा विकृत सा,
जिसको कि कहते काढ़ा लोग !
खांसी, सर्दी याकि सरदर्द,
होते इससे खत्म ये रोग !
हे सुलभ औषधी जीवन की, क्योंकर तुमको बिसराऊंगा !
अमृत समान हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !
पर जग ये बड़ा कृतघ्नी है,
उपकार नहीं कोई माने !
कहता, करती तुम देह हानि,
दुर्गुण तुममे झूठ बखाने !
पर हे सुस्वादे! मै मन से, सच गुण तुम्हारे गाऊंगा !
अमृत समान हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !
-पियुष द्विवेदी ‘भारत’
Comment
आदरणीय राजेश कुमारी जी, साभार धन्यवाद !
आह ह्ह्ह चाय इस सर्दी में और आपका चाय की प्रशंसा में ये गीत किसे पसंद नहीं आएगा इस वक़्त तो इस गीत की हर बात सच्ची लग रही है बहुत पसंद आया ये गीत बधाई आपको
धन्यवाद आदरणीय सीमा जी, सुझावों पर ध्यान देते हुवे, त्रुटियों के सुधार का हर संभव प्रयास करूँगा !
चाय के प्रेम में डूबे प्रेमी ने अपनी प्रेमिका की अच्छी स्तुति प्रस्तुत की है नया कथ्य जिसकी निश्चित ही सभी प्रशंसा करेंगे ही मैं भी बधाई देती हूँ
अब यदि शैली की बात करें तो वह भी बहुत खूब ३२-३२ मात्राओं के पहियों पर सफ़र करता आपका गीत संतुलित ढंग से प्रयाण कर रहा था |पर अचानक शायद शब्द और भाव रूपी मोह के काँटों ने पहियों के असंतुलित कर दिया और शिल्प को बिगाड़ दिया अपनी इन पंक्तियों पर दृष्टि डालिए एक बार फिर
//हे विश्वव्यापिनी प्राणप्रिये, छोड़ तुम्हे कहाँ जाऊंगा ?//
इक रूप तुम्हारा विकृत सा ,जिसको कि कहते काढा लोग
खांसी सर्दी याकि सरदर्द होता इससे ख़त्म ये रोग
कहता करती तुम देह हानि दुर्गुण तुमने झूठ बखाने
पर हे सुस्वादे मैं मन से सच गुण तुम्हारे गाऊँगा
bold की हुए पंक्तियों को यदि मेरी बात ठीक लगे तो एक बार फिर से देख लीजिये ...
शुभकामनाएं
आदरणीय रक्ताले जी, बेशक विज्ञान ने भी अब चाय की संप्रभुता (गुणवत्ता) को स्वीकार कर लिया है, पर फिर भी अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो हाथ में चाय का कप लिए हुवे ये सलाह देते हैं कि चाय, सेहत के लिए हानिकारक होती है !
पियूष जी
सादर, कोई देह हानि नहीं भाई अब तो विज्ञान भी कहता है चाय से त्वचा खिली खिली रहती है. बहुत सुन्दर रचना. हार्दिक बधाई.
सादर धन्यवाद रणवीर भाई......!
@ पियुष द्विवेदी 'भारत'वाह अति सुन्दर रचना, हमारे भोपाल शहर में एक कहावत है की प्राण जाए पर चाय न जाए... चाय हमारे देश का राष्ट्रीय पेय घोषित होने वाला है २१ अप्रैल २०१३ को... एक बार फिर बधाई...
शुक्रिया आदरणीय प्रदीप जी....
चाय तो लाभकार है
मुझे लगती प्यारी
पियूं न जब तक इसे
छायी रहे खुमारी
बधाई, चाय दर्शन हेतु.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online