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शांति 
------
पक्षियों का कलरव 

जल प्रपात 

समुद्र की गोद में 
क्रीड़ारत लहरें 
धुआं उगलते कारखाने 
फर्राटा  भरती  गाड़ियाँ 
शोर हर तरफ 
घुटता दम 
इसके बीच हम 
नहीं सुनायी देती 
नही दिखती 
अबला की चीत्कार 
भूखे नंगे सिसकते बच्चे 
नफरत की चिंगारी 
झुलसते तन 
लाशों का ढेर 
मानवता का टूटता दम 
कैसे सुने 
कैसे दिखे 
वक्त नही 
भौतिक  वाद 
आधुनिकीकरण 
लिप्सा 
आगे जो  है बढ़ना 
रह न जाएँ पीछे 
पड़े लाशों पे गुजरना 
शान्ति 
बड़ी कठिन है 
खोजो 
मिल भी गयी 
कष्टकारी होगी  
इन आवाजों को 
सहन कर पायेगी ?
खुलते आँख जब 
सब दिखने लगेगा 
जन्मते बिचारी 
दम तोड़ जायेगी 
इससे अशांति भली 
हत्या का दोष 
मैं क्यों लूं 
 
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 
२५-११-२०१२ 

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 27, 2012 at 11:52am

आदरणीया राजेश कुमारी जी 

सादर 

आभार. 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 27, 2012 at 11:49am

आदरणीया प्राची जी, सादर 

चलिए किसी का मन प्रसन्न हुआ. प्रयास सफल. वर्ना मैं तो तरसता हि रहता हूँ. रचना की गुणवत्ता जानने के लिए. 

आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 27, 2012 at 11:47am

आदरणीय लड़ी वाला जी, सादर 

साथ चलते रहिये, अंगुली पकड़ मैं भी चल लूँगा.

आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 27, 2012 at 11:46am

आदरणीय चंद्रेश जी, सादर 

आभार प्रोत्साहन हेतु.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 27, 2012 at 11:44am

आदरणीय अशोक जी, सादर 

पता नहीं जो कहना छाहता हूँ कह पाया या नहीं. 

आभार स्नेह हेतु. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 26, 2012 at 8:05pm

आधुनिकरण  की अंधी दौड़ ,दूषित पर्यावरण सांस लेना भी दूभर अशांत मन इंसान जिए तो कैसे आपकी रचना में उभरते भाव सब समझा रहे हैं बहुत अच्छी समसामयिक रचना बहुत बहुत बधाई प्रदीप कुशवाह जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 26, 2012 at 12:37pm

कोलाहल में फंसा मन, सोचने समझने की  क्षमता को खोता , लिप्साग्रस्त एक अंधी दौड़ में दौड़ता जाता... शांति मिलना मुश्किल है, अगर मिल भी गयी तो बरकरार कैसे रहेगी, ...और अंत तो वाह!!!.... हत्या का दोष मैं क्यों लूं .   

हार्दिक बधाई इस अभिव्यक्ति पर, मन खुश हो गया ये रचना पढ़ कर. सादर.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 26, 2012 at 10:18am

नहीं सुनायी देती 
नही दिखती 
अबला की चीत्कार 
भूखे नंगे सिसकते बच्चे 
नफरत की चिंगारी 
झुलसते तन 
लाशों का ढेर - बहुत सुन्दर श्री प्रदीप कुमर सिंह कुशवाहा जी, हाँ हम एक ही विश्ववद्यालय के लगते है 
पर उसके कुलपति तो श्रद्धेय सुमित्रा नंदन पन्त जैसे कड़ी बोली के महा कवी ही रहे होंगे । बधाई 
Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:55pm

बहुत खूब प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी,

कैसे सुने 

कैसे दिखे 
वक्त नही 
भौतिक  वाद 
आधुनिकीकरण 
लिप्सा 
आगे जो  है बढ़ना 
क्या बात है |
Comment by Ashok Kumar Raktale on November 25, 2012 at 8:21pm

आदरणीय प्रदीप जी 

                    सादर, बहुत सुन्दर भाव व्यक्त करती रचना के लिए बधाई स्वीकारें. सच है हम भागती दौडती जींदगी में मानवता को कहीं पीछे छोड़ आये हैं. सादर.

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