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यह जुबाँ कहती जुबानी, जो जवानी ढाल पर ।
क्या करे शिकवा-शिकायत, खुश दिखे बदहाल पर ।|
आँख पर परदे पड़े, आँगन नहीं पहले दिखा -
नाचते थे उस समय जब रोज उनकी ताल पर ।।
कर बगावत हुश्न से जब इश्क अपने आप से -
थूक कर चलता बना बेखौफ माया जाल पर ।।
आँच चूल्हे में घटी घटते सिलिंडर देख कर
चाय काफी घट गई अब रोक ताजे माल पर ।।
वापसी मुश्किल तुम्हारी, तथ्य रविकर जानते
कौन किसकी इन्तजारी कर सका है साल भर ||
Comment
आपकी ग़ज़ल पढ़कर भी रवि भाई बड़ा मजा आया बहुत खूब दाद कबूलें
रविकर जी नमस्कार ! खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली दाद कुबूल करें
खास कर ये शेर तो माशाल्लाह कमाल का है ....
आँच चूल्हे में घटी घटते सिलिंडर देख कर
चाय काफी घट गई अब रोक ताजे माल पर ।।
आदरणीय सर यह तो आपका स्नेह है मेरे प्रति अन्यथा मैं अभी इतना बड़ा कहाँ हुआ हूँ जो आपकी मदद कर सकूँ, आप खुद बहुत सामर्थ्य रखते हैं.
प्रिय अरुण -
आपकी गजल पर चार पंक्तियों की टिप्पणी की थी कल -
पुन: देखने पर लगा की कुछ ख़ास लिखा गया है-
तीन शेर और जोड़ दिए-
आभार आपका ||
आपके लेखन से भी खुब मदद मिल रही है-
पुन: आभार -प्रिय अरुण ||
वाह आदरणीय रविकर सर खूबसूरत ग़ज़ल खास कर ये दो अशआर तो माशाल्लाह कमाल के हैं, दिली दाद कुबूल करें
आँच चूल्हे में घटी घटते सिलिंडर देख कर
चाय काफी घट गई अब रोक ताजे माल पर ।।
वापसी मुश्किल तुम्हारी, तथ्य रविकर जानते
कौन किसकी इन्तजारी कर सका है साल भर ||
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