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टिप्पणी भी अब नहीं छपती हमारी ।
छापते हम गैर की गाली-गँवारी ।
कक्ष-कागज़ मानते कोरा नहीं अब-
ख़त्म होती क्या गजल की अख्तियारी ।
राष्ट्रवादी आज फुर्सत में बिताते -
कल लड़ेंगे आपसी वो फौजदारी ।
नाक पर उनके नहीं मक्खी दिखाती-
मक्खियों ने दी बदल अपनी सवारी ।
ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।
Comment
रविकर सर आपके लिए कुछ भी कठिन नहीं यह आपने इस ग़ज़ल में ही कह दिया है बहुत खूब सर बधाई स्वीकारें.
बहुत बढ़िया प्रयास किया रविकर जी ग़ज़ल लिखने का बहुत बहुत बधाई
दमदार गज़ल रविकर भाई ...खासकर ये मक्ता शेर -
ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।
बधाई कबूलें !
ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।
sahi kaha ravikar ji.
आपका ग़ज़ल हेतु हुआ प्रयास मुग्ध कर रहा है, आदरणीय रविकरजी.
सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय विवेक जी ,अग्रज लक्ष्मण जी भाई रक्ताले जी-
ना छपी कोई गाली ना ही गवारी,
यह तो है भैया बड़ी ही रंगदारी/
सुन्दर रचना आदरणीय रविकर जी सादर बधाई स्वीकारें.
/टिप्पणी भी अब नहीं छपती हमारी ।
छापते हम गैर की गाली-गँवारी ।/- Achchha vyang hai Ravikar Ji. Badhaai.
बधाई सफलता जो पाई
रविकर जी क्षमा प्रार्थी हूँ गडबड़ी पर राय नहीं दे सकता
क्योकि इस रचना में मात्राओं की कोई गडबड़ी नहीं है
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