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यह जुबाँ कहती जुबानी, जो जवानी ढाल पर ।
क्या करे शिकवा-शिकायत, खुश दिखे बदहाल पर ।|
आँख पर परदे पड़े, आँगन नहीं पहले दिखा -
नाचते थे उस समय जब रोज उनकी ताल पर ।।
कर बगावत हुश्न से जब इश्क अपने आप से -
थूक कर चलता बना बेखौफ माया जाल पर ।।
आँच चूल्हे में घटी घटते सिलिंडर देख कर
चाय काफी घट गई अब रोक ताजे माल पर ।।
वापसी मुश्किल तुम्हारी, तथ्य रविकर जानते
कौन किसकी इन्तजारी कर सका है साल भर ||
Comment
आभार आदरणीय अरुण जी ||
बहुत बहुत आभार आदरणीय |
आभार ओ बी ओ ||
भाई रविकर जी ! मैं आपकी इस ग़ज़ल पर विस्मित भी हूँ और अतीव प्रसन्न भी ! वाकई आप शब्दों के चितेरे हैं.
ग़ज़ल को बह्र पर ले आना और कहना इस सुन्दर तरीके से हुआ है कि मन खुश हुआ है -
आँख पर परदे पड़े, आँगन नहीं पहले दिखा -
नाचते थे उस समय जब रोज उनकी ताल पर ।।
बधाई भाईजी.
वाह रविकर जी अ|पका ये अंदाज़ मन को भा गया हार्दिक बधाई इस बहु आयामी ग़ज़ल पर !!
जी आदरणीय वीनस जी ।
आभार आदरणीय भाई लडीवाला जी ।।
आभार आदरणीय अजय शर्मा जी ।।
बेहतरीन भाव अभिव्यक्ति बधाई रविकर भाई
क्या कहने
वाह
सुन्दर भावाभिव्यक्ति
लाजवाब द्विपदिका
बधाई स्वीकारें
शीर्षक से रचना का रिश्ता समझ नहीं आया
मात्रा क्रम पर पुनः ध्यान दें ....
उचित विश्राम क्रम यह है
२१२२ / २१२२ / २१२२ / २१२
सादर
POORI GITIKA KE LIYE DAAD QUBOOL KARE
आभार आदरणीय चंद्रेश जी आदरणीय डाक्टर 'सूरज' ||
आभारआद्रेया राजेश दी ||
रविकर जी बहुत बधाई और दिली दाद की हकदार है आपकी ग़ज़ल||
आँख पर परदे पड़े, आँगन नहीं पहले दिखा -
नाचते थे उस समय जब रोज उनकी ताल पर ।।
बहुत ही सुन्दर तरीके से बहुत सारे सच इसमें छुपा दिए हैं आपने |
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