जानती हूँ
या कहो
बखूबी समझती हूँ
तुम्हारे चुपचाप रहने का सबब
हमारे बीच समझ का
जो अनकहा पुल है
कभी सच्चा लगता है और
कभी दिवास्वप्न सा
दुविधा की कई बातें हैं
जज्बातों की कई सौगाते भी हैं
जो अकेले बैठ के
अपने मन मंदिर में
कोमल अहसासों से पिरोयें हैं
साझा करने को कभी
पुल के इस पार तो आओ
दो बातें तो कर जाओ
जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की
उलझन तो सुलझा जाओ
Comment
.उलझन !
बहुत सुन्दर रचना .
आज हर व्यक्ति उलझन में है,
उलझन तो सुलझा जाओ !
बहुत खूब महिमा जी .
आत्मीय संबंधों में संवाद की जरूरत ही नहीं होती...एक सुकून भरी खामोशी, अनकहा वायदा, एकत्व का एहसास....
पर भौतिकता की तरफ दृष्टि होते ही, एक दुविधा, की यह एहसास सत्य है या भ्रम...
और इस उलझन को सुलझाने के लिए शब्दिकता की आवश्यकता..
इन सुन्दर भावों को अभिव्यक्ति में बहुत खूबसूरती से पिरोया है प्रिय महिमा जी,
हार्दिक बधाई..
मंच पर आपकी जुगनू सी चमक के दीप बनने की मंगल कामनाएं. सस्नेह.
आदरणीया महिमा जी,
मार्मिक भावों से भरपूर आपकी कविता मन को छू गई।
विजय निकोर
करीने से लिखी गई रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
नमस्कार अनंत जी ..
आपका स्वागत है / आपका ह्रदय से आभारी हूँ / सहयोग बनाएं रखे
आदरणीय लक्ष्मण सर ,सादर नमस्कार ..
रचना को सराहने के लिए आपका ह्रदय से आभारी हूँ / स्नेह बनाएं रखे
आदरणीय सौरभ सर . सादर नमस्कार ..
ये मेरा सौभाग्य है ..जो आप गुरुजनों का स्नेह और आशीर्वाद हमेशा मिलता रहता है /
आपके वाह!! ने तो इस रचना को जो मान दिया है उसकी ख़ुशी मैं बयाँ नही कर सकती / आगे भी प्रोत्साहन मिलता रहेगा यही आशा है/ आपका हार्दिक आभार / सधन्यवाद
आदरणीय नादिर जी , नमस्कार
रचना आपको पसंद आई .. ह्रदय से आभारी हूँ / सहयोग बनाएं रखे /
बेहद सुन्दरता से शब्दों में पिरोई खूबसूरत प्रस्तुति बधाई स्वीकारें
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति की लिए हार्दिक बधाई स्वीकारे महिमा श्रीजी
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