नील गगन में अम्बुद धवल,
स्नेहरूपी मोतियों समान बूँदों से सींचते
बलवान, योग्य आत्मजों सदृश
फलों से लदे छायादार विटपों से भरी,
उत्साही, सुगन्धित, रंग-बिरंगी पल्लवित
पुष्पों से सजी,
स्वर्ण सरीखी लताओं से जड़ित,
चटख हरे रंग की कामदार कालीन बिछी
धरती को;
मंगलगान गाती कोयलें बैठ डालियों पर,
प्रणय-निवेदनरत मृग युगल,
अमृतकलश सम दिखते सरोवर,
किलकारियों से वातावरण को गुंजायमान
करते खगवृन्द,
परियों जैसी उड़ती तितलियाँ;
ऐसे सुन्दर, मनमोहक, रम्य दृश्य को
निहारते हुये
मुदित मन से नृत्य करते-करते
अपने पैरों पर दृष्टी पड़ते ही
नैराश्य के विशिखों से विदीर्ण ह्रदय हुआ
अकस्मात ही ठिठक जाता है
मयूर मन का।
Comment
प्रिय कुमार गौरव जी
इस कविता का कथ्य बहुत अलग है, बहुत सुन्दर है, शब्द चयन भी बहुत सुन्दर है, इस हेतु आपको हार्दिक बधाई
किन्तु शायद सम्प्रेषण में कुछ कमी है, जिससे इसमें काव्यात्मकता और माधुर्य कहीं लुप्त लगता है,
क्या ऐसा नहीं लग रहा है जैसे यह कविता न हो कर कुछ वर्णन हो ?
सस्नेह !
मुदित मन से नृत्य करते-करते
अपने पैरों पर दृष्टी पड़ते ही
नैराश्य के विशिखों से विदीर्ण ह्रदय हुआ
अकस्मात ही ठिठक जाता है
मयूर मन का.........एक नवीन विचार को अंत में प्रस्तुत करती पंक्तियाँ
दोनों ही तरह की संभावना आती है मन में मयूर के सुन्दर शरीर में स्थापित बदसूरत पैर यदि कई सुन्दर उपलब्धियों के बावजूद भी नैराश्यभाव लाते हैं तो यह गलत है पर यदि यदि उपलब्धियाँ अभिमान का कारण बनतीं हैं तो उसे एक बार अपने पैर की तरफ जरूर देखना चाहिए
सुन्दर रचना गौरव जी
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