एक और ग़ज़ल पेश -ए- महफ़िल है,
इसे ताज़ा ग़ज़ल तो नहीं कह सकता, हाँ यह कि बहुत पुरानी भी नहीं है
गौर फरमाएँ
खूब भटका है दर-ब-दर कोई |
ले के लौटा है तब हुनर कोई |
अब पशेमां नहीं बशर कोई |
ख़ाक होगी नई सहर कोई |
हिचकियाँ बन्द ही नहीं होतीं,
सोचता होगा किस कदर कोई |
गमज़दा देखकर परिंदों को,
खुश कहाँ रह सका शज़र कोई |
धुंध ने ऐसी साजिशें रच दीं,
फिर न खिल पाई दोपहर कोई |
कोई खुशियों में खुश नहीं होता,
गम से रहता है बेखबर कोई |
पाँव को मंजिलों की कैद न दे,
बख्श दे मुझको फिर सफर कोई |
गम कि कुछ इन्तेहा नहीं होती,
फेर लेता है जब नज़र कोई |
सामने है तवील तन्हा सफर
मुन्तजिर है न मुन्तज़र कोई
बेहयाई की हद भी है 'वीनस',
तुझपे होता नहीं असर कोई |
१३- ०५ - २०१२
Comment
यही कारण है संदीप भाई से इतना कुछ कहता हूँ..
खुले दिल से मिली दाद और हौसला अफजाई के लिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ
@ संदीप पटेल भाई, अब खुद को नौसिखिया कहना बंद कर दीजिए ... आपकी ग़ज़ल पढ़ने के बाद अब आप पर यह शब्द 'सूट' नहीं करता है
वाह-वा! वाह-वा! क्या बात है भाई वीनस जी! ये बेहतरीन ग़ज़ल बड़ी देर से साझा कि! ख़फ़ीफ़ में मैंने बहुत से शानदार ग़ज़लें सुनी हैं और आज यह भी उनमें सम्मिलित हो गई! उम्दा कहन! हुस्ने मतला बहुत अच्छा लगा! मगर पर्सनल च्वाइस कहूँ तो...
पाँव को मंज़िलों की क़ैद न दे,
बख़्श दे मुझको फिर सफ़र कोई; --> लाजवाब तेवर.. दिल छू गए आप.. बधाईयां स्वीकार हों..
पाँव को मंजिलों की कैद न दे,
बख्श दे मुझको फिर सफर कोई |
गम कि कुछ इन्तेहा नहीं होती,
फेर लेता है जब नज़र कोई |
Behtareen agaz, umda ashaar, apne andaz men khubsurat maqta.
bahut khub adarniy vinus ji.
बेहतरीन ग़ज़ल कही है साहब
हम नौसीखियों के लिए इक और पाठ
कहाँ गिराना है कौन सा हर्फ़ सीख सको तो सीख लो
बहुत बहुत बधाई सर जी
बहुत अच्छी ग़ज़ल है वीनस जी। कुछ शे’र तो बेहद खूबसूरत हैं। जैसे
खूब भटका है दर-ब-दर कोई |
ले के लौटा है तब हुनर कोई |
हिचकियाँ बन्द ही नहीं होतीं,
सोचता होगा किस कदर कोई |
गमज़दा देखकर परिंदों को,
खुश कहाँ रह सका शज़र कोई |
धुंध ने ऐसी साजिशें रच दीं,
फिर न खिल पाई दोपहर कोई |
कोई खुशियों में खुश नहीं होता,
गम से रहता है बेखबर कोई |
पाँव को मंजिलों की कैद न दे,
बख्श दे मुझको फिर सफर कोई |
गम कि कुछ इन्तेहा नहीं होती,
फेर लेता है जब नज़र कोई |
क्लीयर हुआ. .. :-)))
हिचकियाँ बन्द ही नहीं होतीं,
सोचता होगा किस कदर कोई |
गमज़दा देखकर परिंदों को,
खुश कहाँ रह सका शज़र कोई |
धुंध ने ऐसी साजिशें रच दीं,
फिर न खिल पाई दोपहर कोई |
कोई खुशियों में खुश नहीं होता,
गम से रहता है बेखबर कोई |
शानदार गज़ल श्री विनस जी , ये शेर खास तौर पर पसन्द आये हार्दिक बधाई इस सशक्त गज़ल पर !!
saurabh ji
Is ghazal ko 2122 / 1212 / 22 par taktiA karke dekhe.n
आदरणीय वीनस भाई लाजवाब ग़ज़ल कही है सबके सब अशआर भरपूर आनंद दे रहे हैं, पढ़कर तरोताजा हो गया हूँ भर-2 कर दिली दाद और बधाई स्वीकारे.
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