मित्रों, कई दिन के बाद एक ग़ज़ल के चंद अशआर हो सके हैं, आपकी मुहब्बतों के नाम पेश कर रहा हूँ
वो हर कश-म-कश से बचा चाहती है |
वो मुझसे है पूछे, वो क्या चाहती है |
यूँ तंग आ चुकी है इन आसानियों से,
हयात अब कोई मसअला चाहती है |
उन्हें सोच लूँ या करूँ इसको पूरी,
ये ताज़ा ग़ज़ल जो हुआ चाहती है |
ये नाज़ुक सा रिश्ता रहे ? टूट जाये ?
समझ में न आए वो क्या चाहती है |
पढ़ो खुद को 'वीनस' समझ जाओगे तुम,
अभी शाइरी तज्रिबा चाहती है |
Comment
@ राज बुन्देली साहिब आपका बहुत बहुत शुकिया
@नादिर खान साहिब, आपकी नवाज़िश है
उन्हें सोच लूँ या करूँ इसको पूरी,
ये ताज़ा ग़ज़ल जो हुआ चाहती है |
.........wah ..sundar kahan ...
वाह वीनस भाई... सुन्दर ग़ज़ल...
अच्छी ग़ज़ल हुई है वीनस जी, दाद कुबूल करें
वाह लाजावाब श्री वीनस जी -
यूँ तंग आ चुकी है इन आसानियों से,
हयात अब कोई मसअला चाहती है |
उम्दा ग़ज़ल.
आदरणीय वीनस जी:
सारी गज़ल बहुत ही अच्छी बनी है।
बधाई।
विजय निकोर
इस ज़र्रा नवाजी के लिए आप सभी का तहे दिल से आभारी हूँ ....
पढ़ो खुद को 'वीनस' समझ जाओगे तुम,
अभी शाइरी तज्रिबा चाहती है | achha sher hai vinas ji .. mubark bad qubuleN
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