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“तंत्र को पारदर्शी करो, तंत्र को पारदर्शी करो”। सरकारी दफ़्तर के बाहर सैकड़ों लोगों का जुलूस यही नारा लगाते हुए चला आ रहा था। अंदर अधिकारियों की बैठक चल रही थी। एक अधिकारी ने कहा, “जल्दी ही कुछ किया न गया तो जुलूस लगाने वाले लोग कुछ भी कर सकते हैं”। अंत में सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि तंत्र को पूर्णतया पारदर्शी बना दिया जाय।

कुछ ही दिनों में दफ़्तर की सारी दीवारें ऐसे शीशे की बनवा दी गईं जिससे बाहर की रोशनी अंदर न आ सके लेकिन अंदर की रोशनी बाहर जा सके। अब दफ़्तर का सारा काम काज बाहर से देखा जा सकता था। जनता बहुत खुश थी कि अब दफ़्तर के किसी कर्मचारी की हिम्मत नहीं होगी रिश्वत लेने की।

दफ़्तर के कर्मचारी बहुत खुश थे। पारदर्शी दफ़्तर का बाथरूम पारदर्शी नहीं था और उसे दुनिया का कोई संविधान कोई कानून कभी पारदर्शी नहीं बनवा सकता था। अब तो जाँच का भी कोई खतरा नहीं था क्योंकि दफ़्तर का सारा काम बाहर बैठे जाँच अधिकारियों की आँखों के सामने ही हो रहा था।

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 17, 2012 at 10:33pm

एक अलग नज़रिये को सामने लाती लघुकथा के लिए बहुत-बहुत बधाई. 

वैसे लघु कथा की अंतिम पंक्तियाँ ये होनी थीं --  दफ़्तर के कर्मचारी बहुत खुश थे। पारदर्शी दफ़्तर का बाथरूम पारदर्शी नहीं था और उसे दुनिया का कोई संविधान कोई कानून कभी पारदर्शी नहीं बनवा सकता था।

यह मेरे हिसाब से है. आपने सही ही किया है.

Comment by Dipak Mashal on December 17, 2012 at 9:29pm

सच कहा था बीरबल तुमने :)


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 17, 2012 at 8:57pm

बहुत बढ़िया अब सब सहूलियतें बाथरूम में फिट हो जायेंगी थोड साइज भी बड़ा करने लगेंगे ताकि फाइल वगेरह के लिए टेबल आदि रख सकें  गुड आइडिया 

Comment by seema agrawal on December 17, 2012 at 8:17pm

सही कहा धर्मेन्द्र जी "जहां चाह वहाँ राह" की कहावत तो इन जैसों के लिए ही बनी है जो एक नहीं कई-कई राह ढूंढ सकते हैं भला बेईमानी की राह में कोई कैसे आ सकता है .......सटीक व्यंग 

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