मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
जहाँ से निकलना सम्हल के निकलना,
अपनों से अपने ठगाने लगे हैं।।
***
Comment
वाह ...शानदार
arun ji, pradeep ji, mahima ji, ashok ji
apka abhar shat-shat.
परम आदरणीय सलिल जी सादर, बहुत सुन्दर मुक्तिका बधाई स्वीकारें.
न ताने, न बाने, न चरखा-कबीरा
तिलक- साखियाँ ही भुनाने लगे हैं।।
सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
बनने में उनको ज़माने लगे हैं।।
आदरणीय सर ..वाह !!
क्या खूब कही आपने ..बधाई स्वीकार करें
सर जी निश्चय ही बनाने में ज़माने लगे हैं
सादर अभिवादन के साथ बधाई,
वाह आदरणीय सलिल सर वाह बेहद सुन्दर मुक्तिका: रची है, मुझे बेहद पसंद आई और रचना कई बार पढ़ी बधाई स्वीकारें.
apka abhar shat-shat.
'सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
वाह वाह आदरणीय सलिल जी क्या बात कही ,दाद कबूल कीजिये
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