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ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण//डॉ प्राची

ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.

 

गुलशन उजड़ने से

सहमीं हैं कलियाँ,

पंखों को सिमटाये

दुबकी तितलियाँ,

कर्कश सा चिल्लाये भंवरा क्यों हर क्षण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.

 

बुझी दीप की लौ

है फैला अँधेरा,

प्रज्ञा को तम के

कलुष नें है घेरा,

खिले फिर से रश्मि करे तम का भक्षण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.

 

कैसे हुआ वक़्त

इतना विषैला,

क्यों कर हुआ है

मनस इतना मैला,

कैसे करें आज कलियों का रक्षण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.

 

ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 10, 2013 at 4:31pm

बुझी दीप की लौ

है फैला अँधेरा,

प्रज्ञा को तम के

कलुष नें है घेरा,

खिले फिर से रश्मि

करे तम का भक्षण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.

आदरणीय प्राची जी, 

सादर 

सहमत 

बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 3, 2013 at 11:59am

आपकी शुभकामनाओं के लिए हार्दिक आभार आदरणीय विजय निकोर जी 

Comment by vijay nikore on January 3, 2013 at 2:33am

आदरणीया प्राची जी,

कैसे हुआ वक़्त

इतना विषैला,

क्यों कर हुआ है

मनस इतना मैला,

कैसे करें आज

कलियों का रक्षण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण

यह पंक्तियाँ कितना-कुछ कह रही हैं!

काश, हर कोई आपकी इस कविता को पढ़े।

साधुवाद।

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 2, 2013 at 4:48pm

रचना निहित संवेदना को मान देने के लिए आभार प्रिय राजेश कुमार झा जी 

Comment by राजेश 'मृदु' on January 2, 2013 at 4:18pm

आपकी संवेदना में हमारा भी सुर मिले और एक ऐसे समाज की रचना हो जहां फिर ऐसा वक्‍त ना आए । बढि़या चित्रण के लिए हार्दिक शुभकामनाएं, बधाई नहीं दूंगा क्‍योंकि यह आपकी संवेदना का अपमान होगा, सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 1, 2013 at 1:20pm

हार्दिक आभार प्रिय महिमा जी 

यह रचना आपके ह्रदय को छू सकी इसलिए आभारी हूँ आपकी , 

नववर्ष आपके लिए भी बहुत मंगलमय हो. 

सस्नेह 

Comment by MAHIMA SHREE on January 1, 2013 at 11:32am

कैसे हुआ वक़्त

इतना विषैला,

क्यों कर हुआ है

मनस इतना मैला,

कैसे करें आज

कलियों का रक्षण,

सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम....

आदरणीया प्राची जी ..

ह्रदय को झकझोर देनेवाली रचना .. आशा है नववर्ष में समाज में सकरात्मक बदलाव आये ..सोच बदलें .

नववर्ष की आपको सपरिवार बधाइयाँ और शुभकामनाएं


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 31, 2012 at 8:07pm

आदरणीय सौरभ जी 

दामिनी की मौत नें झकझोर दिया है, पूरा देश एक सुर में समाधान चाहता है.

समयाभाव के बावजूद भी आप इस रचना को वक़्त दे पाए और अपनी शुभकामनाएं संप्रेषित कर सके, इस हेतु आपकी ह्रदय से आभारी हूँ. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 31, 2012 at 8:02pm

आदरणीय संजीव जी,

सादर आभार, इस अभिव्यक्ति निहित संवेदना के साथ अपनी बुलंद आवाज में इसे संबल प्रदान करने के लिए. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 31, 2012 at 6:49pm

कैसे हुआ वक़्त
इतना विषैला,
क्यों कर हुआ है
मनस इतना मैला,
कैसे करें आज
कलियों का रक्षण,

चलचित्र सा घूम गया वर्तमान. बहुत ही प्रभावोत्पादक पंक्तियाँ हैं, डॉ.प्राची.

समयाभाव है, वर्ना इतनी अच्छी रचना से वंचित रहना किसे अच्छा लगता है.  आपको बार-बार बधाई, आदरणीया.

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