ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
गुलशन उजड़ने से
सहमीं हैं कलियाँ,
पंखों को सिमटाये
दुबकी तितलियाँ,
कर्कश सा चिल्लाये भंवरा क्यों हर क्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
बुझी दीप की लौ
है फैला अँधेरा,
प्रज्ञा को तम के
कलुष नें है घेरा,
खिले फिर से रश्मि करे तम का भक्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
कैसे हुआ वक़्त
इतना विषैला,
क्यों कर हुआ है
मनस इतना मैला,
कैसे करें आज कलियों का रक्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
Comment
आपकी आवाज़ में आवाज़ मिला कर कहना है:
तिरंगा नहीं है तुम्हारी बपौती,
संवेदना है हमारी सगोती.
युग जैसा लंबा लगता है क्षण-क्षण
ध्वजा को झुक दो कि क्रंदित है जन-गण...
लेखन कर्म को मान देने के लिए आभार आ. डॉ. अजय खरे जी
jate huye saal me jo manjar tha aapne bya kiya aap dher sari badhai ki hakdaar he aap bahut sunder tarah se rachna ko sanklit karti he
हार्दिक आभार आदरणीया सीमा जी
हार्दिक आभार प्रिय पियूष जी
रचना के अनुमोदन हेतु आभार श्याम नारायण वर्मा जी
हार्दिक आभार आ. अशोक जी, आपको भी नव वर्ष पर हार्दिक मंगल कामनाएं
अनुमोदन हेतु आभार शालिनी जी, जवाहर लाल जी
हर किसी के मन में उठ रही पीडा को स्वर देने के लिए बधाई एवं धन्यवाद प्राची ..........
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