वो दिन कितने प्यारे थे
गाँव गाँव और
शहर शहर में
प्रेम पगे गलियारे थे ......
स्वार्थ नहीं
इक अपनापन था
परहित में
जीवन-यापन था
अमन चैन के
रंग में रंगे
आलोकिक भुनसारे थे ..........
कोई बुराई
नहीं करता था
अविश्वास
सदा मरता था
दोस्त दोस्त से
आस लगाये
राग द्वेष अंधियारे थे ............
इक होती थी
सबकी राय
कोई अपनी
नहीं चलाय
संग में
जब तब
होती मस्ती
मौसम सब ही न्यारे थे .......................
बड़ा बड़प्पन
खडा दिखाए
छोटों को भी
गले लगाय
होली की जलती
पावक में
सबकी नज़र उतारे थे ............................
गम बाटें
खुशियाँ भी बाटें
स्वागत और
विदा भी बाटें
बहती थी जो
झर झर आँखें
आँसू मीठे खारे थे ........................
दहशत न
वहशत की बातें
रंग भरी
होती थी रातें
हलकी फुलकी
नोंक झोंक में
सपने खूब सँवारे थे .....................
मर्यादा का
पाठ था मिलता
ज्ञान का सुन्दर
पुष्प था खिलता
कहीं नहीं था
तेरा मेरा
अपने और हमारे थे ...................
खेंच तान की
न थी सियासत
ख़ुशी ख़ुशी
रहती थी रियासत
मात पिता के
आँख के तारे
हम सब राजदुलारे थे ..................
संदीप पटेल "दीप"
Comment
aadarneey Ashok Kumar Raktale sir ji saadar prnaam
aapki is pratikriya ke liye bahut bahut dhanyvaad aur saadar aabhar
sneh yun hi anuj par banaye rakhiye
मर्यादा का
पाठ था मिलता
ज्ञान का सुन्दर
पुष्प था खिलता
कहीं नहीं था
तेरा मेरा
अपने और हमारे थे ................... आहा! काश के फिर वो वक्त लौट आये.
बहुत सुन्दर गीत की प्रस्तुति आदरणीय संदीप जी बधाई स्वीकारें.
बंधुवर अनंत भाई , आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी , आदरणीय विजय सर जी सादर प्रणाम
मेरी इस रचना को सरहने हेतु आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद सहित सादर आभार
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
BAHOT KHOOB..............................
समाज क्या था और अब कैसा है ... यह अच्छा बताया है।
विजय निकोर
मित्रवर आपकी सोंच को नमन, समय के साथ-२ कितना कुछ बदल गया है और बदल रहा है, रचना को पढ़कर ऐसा लगा की बहुत कुछ खो दिया है हमने, बहुत कुछ पीछे छुट गया है, रिश्ते-नाते, अपनापन, विश्वास, प्रेम सब कुछ रेत की भांति हांथों से फिसल गया है. हार्दिक बधाई.
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