एक दिन तुम देखना
एक दिन तुम देखना
खौफ और आतंक ऐसे
बढ़ रहा है आज कैसे
लाज लुटती राह में यूँ
लगता अंधा राज जैसे
संस्कृति के जो हैं भक्षक सब बनेंगे सरगना ...........................
मान मर्यादा मिटाई
नींव रस्मों की हिलाई
अपने में सीमित हुई है
आजकल की ये पढ़ाई
बदलो ये सब अब नहीं तो होगा खुद को कोसना ..............................
शून्य ही बस अंक होगा
पोखरों में पंक होगा
शुष्क होंगे वन और पर्वत
हर कोई ही रंक होगा
तुमको न पहचान पायेगा तुम्हारा आइना .............................
मेघ काले छा रहे हैं
बस अँधेरा ला रहे हैं
दर्द सब आँखों में भर के
राग कैसी गा रहे हैं
गर रहा ऐसा ही मंजर होगा फिर जीना मना ........................
गर बदलना है ये सूरत
मत बनों तुम एक मूरत
रात गुजरेगी भयानक
सुबह होगी खूबसूरत
एकता के मंत्र को बस मन के भीतर गांठना .................................
उठ खडा हो साथ सबके
हाथों में हो हाथ सबके
खींच के लाने उजाला
मन में हो पुरुषार्थ सबके
वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना .................................
एक दिन तुम देखना ,,एक दिन तुम देखना
संदीप पटेल "दीप"
Comment
आदरणीय मित्रवर बेहद सुन्दर और भावपूर्ण गीत लिखा है, मानव जीवन से जुड़े हुए तथ्यों को उजागर करती शानदार प्रस्तुति बधाई स्वीकारें
जी आदरणीय गुरुदेव आशीर्वाद और स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
सही पकड़ा आपने भी
उसमे तदनुरूप सुधार कर लूँगा
मेरे निवेदन को सुनने और महत्व देने के लिए धन्यवाद, संदीपजी.
जिन मनोभावना और भावों के तहत आपने अपनी पंक्तियाँ कही हैं, या आपके अंदर का रचनाकार कहना क्या चाह रहा है, सारा कुछ मुझे पूरी तरह से समझ में आ गया था. लेकिन, उन पंक्तियों से क्या संप्रेषित हो रहा है या बड़े परिदृश्य में क्या समझा जा सकता है, उसी की बात मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में की है.
आगे, रचनाकार आप हैं, मनोभाव आपके हैं, तदनुरूप पंक्तियाँ आपकी हैं. हम एक पाठक की हैसियत से जो कुछ समझ पाये उसी के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया दे गये हैं.
गर बदलना है ये सूरत = गर बदलनी है ये सूरत
शुभ-शुभ
आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम
आपके कहन को मैं कैसे टाल सकता हूँ गुरुदेव
मेरे लिए ये बड़ी बात है की आपने इस चेले पर अपनी प्रतिक्रिया रुपी आशीर्वाद की जो असीम कृपा की वो सावन के समान पावन है
आपने जो कहा एकदम ही सत्य है
मैंने जो सोच के ये इस्टेंजा लिखा वो कुछ ऐसा था
शून्य ही बस अंक होगा
"कहाँ शून्य दिखेगा ???
"कहाँ अंक होगा ????
मानव मस्तिष्क पटल तार्किक नहीं रह पायेगा वो शून्यता प्राप्त कर लेगा
वो क्या करे क्या न करे इसका उसे भान नहीं रहेगा "
वो भी तो इक शून्यता ही होगी न गुरदेव
दूसरी ओर मैंने रंक होने की बात भी वही की ही
वो भी उसकी मानसिक वृत्तियों के चलते दीन हीन होने का परिचायक
जो स्वयं पीड़ित है वो दूसरों को सुख कैसे गोचर करा सकता है
तत
गुरुदेव आप कहते हैं अभी भी ऐसे लोग देखने मिल रहे हैं
किन्तु वो सरगना ही हैं जो दिख रहे हैं
मैंने यहाँ संस्कृति के भक्षक की बात उनके लिए की है जो आधुनिकता की आंधी में बहते हुए सदैव हमारे संस्कारों का उपहास उड़ाते नज़र आते हैं और हम उन्हें आधनिक मानते हुए कल क्या होगा की कल्पना करते हैं
इस वक़्त आप देखिये की आधुनिकता को कैसे परोसा जा रहा है
कपड़ों से , ठेठ बात बोलना आदर को ताक पे रखकर, माहौल को पश्चिमी रंग में रंगना , ये सब आधुनिकता के परिचायक हैं .............
तब फिर ऐसी अवस्था में ऐसा लिखना पडा के जिन्हें हम मात्र असभ्य कह कर छोड़ रहे हैं जो हमारी संस्कृति का भक्षण कर रहा है वो इक दिन सरदार बन जायेगा और आप कुछ नहीं कर सकेंगे
बस गुरुदेव मैंने यही सोच कर लिखा था
आगे आपकी बात रखते हुए मैं कहता हूँ के आपने जो विश्लेष्ण किया था वो अद्भुत था और इक नज़र में ये भी माना जा सकता है किन्तु इन पंक्तियों को बाद में रखने का उद्देश्य यही था की कोई भी भ्रमित न हो के मैं क्या कहना चाहता हूँ
गुरुदेव ये आशीष मुझ पर यूँ ही बनाये रखिये
आपका बहुत बहुत आभार
आदरणीय अशोक सर जी , आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी , आदरणीया सीमा जी , आदरणीया डॉ प्राची जी , आदरणीय लक्ष्मण सर जी , आप सभी को सादर प्रणाम
आप सभी को रचना पसंद आई और उसके लिए आपसे मिली इन बेशकीमती प्रतिक्रियाओं के लिए मैं आप सभी का आभारी हूँ स्नेह यूँ ही रखिये सदैव अनुज पर
रचना पढ़ कर अपनी राय से लाभान्वित करे
बहुत सुन्दर गीत लिखा है संदीप जी,
उठ खडा हो साथ सबके
हाथों में हो हाथ सबके
खींच के लाने उजाला
मन में हो पुरुषार्थ सबके
वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना .................................
बहुत सुन्दर भाव , इस बंद के लिए बहुत बधाई
समाज, संस्कृति सभ्यता,मानवता यहाँ तक की पर्यावरण हर विषय पर सवाल उठाये हैं आपने रचना के माध्यम से सचेत और आगाह किया है हर एक को .......बहुत बहुत बधाई संदीप जी एक विचार विस्तार से समृद्ध रचना के लिए
आपके गीत के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ, संदीपजी.
प्रस्तुति की मुख्य पंक्ति की परछाईं में कई संदर्भों को अभी तक भविष्य की कोख में होना बताया गया है, ऐसा लगता है. यथा, संस्कृति के जो हैं भक्षक सब बनेंगे सरगना ..! परन्तु, ऐसे तथ्य तो आज अपनी प्रौढ़ावस्था में दिख रहे हैं, भाईजी !.. :-))
अब इस स्टान्ज़ा पर आपका ध्यान खींचना चाहूँगा.
शून्य ही बस अंक होगा
पोखरों में पंक होगा
शुष्क होंगे वन और पर्वत
हर कोई ही रंक होगा
दो तरह के इंगितों अथवा प्रतीकों को एक पाँत में रखने से किस तरह की उलझनें सामने आती हैं, संदीपजी, देखियेगा. मैं अपनी कुल जानकारी भर के आलोक में कुछ तथ्य साझा करने की कोशिश करता हूँ.
शाश्वत प्रतीक के अनुसार शून्य प्रथम उद्गार-अंक है यानि ब्रह्म का अंक है. ब्रह्माण्ड का मूल ही शून्य है. यदि शून्य ही बस अंक होगा जैसा कुछ हो गया तो समस्त चराचर एक लय में संतृप्त हो जायेंगे. भाई, यही तो प्रकृति के विक्षेप (चर की लीला) का अंतिम प्रतिफल है, लक्ष्य है, अचर होना, शून्य होना ! यह अघट तो है ही नहीं कि इसके प्रति आगाह किया जाना चाहिये !
दूसरे, हर कोई ही रंक होगा अर्थात सभी एक समान होंगे. इसे भी हम यों समझें, कि, इसी यूटोपियन समाज के स्वप्न में कई ’वाद’ विकसित हुए हैं ! विश्व-राजनीति के कई कोण और सामाजिक परिदृश्य के कई प्रारूप मार्क्स के इसी स्वप्न के बाद से वही नहीं रह गये हैं. ऐसा कुछ यदि हुआ तो दुनिया की एक बड़ी आबादी एक अलग ही तरह के जश्न में डूब जायेगी. इसमें भी बुरा क्या है ?
मेरा इतना आशय है कि हम रचना-प्रक्रिया में तर्क और तथ्यों का भी सुन्दर सुमेल करें. बिना rationalize हुई रचना असंयमित हो जाती है, ऐसा मेरा मानना है. विश्वास है, मेरे कहे का ’सत्त’ आपको मान्य होगा.
अलबत्ता, आपकी प्रस्तुति के अंतिम दो स्टान्ज़े पूरी तरह से सधे हुए हैं, विशेषकर सबसे अंतिम स्टान्ज़ा. उसे मैं पूरे मनोयोग से बधाइयों के साथ रखांकित करना चाहूँगा -
उठ खडा हो साथ सबके
हाथों में हो हाथ सबके
खींच के लाने उजाला
मन में हो पुरुषार्थ सबके
वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना..
उपरोक्त सकारात्मकता के लिए आपको बार-बार बधाई.. !
उठ खडा हो साथ सबके
हाथों में हो हाथ सबके
खींच के लाने उजाला
मन में हो पुरुषार्थ सबके
वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना .................................
एक दिन तुम देखना ,,एक दिन तुम देखना
वाह बहुत सुन्दर भाव प्रस्तुत करता यह गीत शायद यही नवगीत है. बधाई स्वीकारें आद. संदीप जी.
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