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आज के युवा बनाम राष्ट्रीय युवा दिवस (व्यंग्य) // -शुभ्रांशु

आज मुहल्लेवालों ने राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने के लिये एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. लाला भाई के प्रयास से ही आज का आयोजन सम्भव हो पाया था इसलिये वे बहुत ही प्रसन्न दिख रहे थे. कार्यकारिणी के सभी सदस्यों के अनुरोध पर कार्यक्रम के मुख्य वक्ता लाला भाई को ही बनाया गया था.

इस वर्ष ठंढ ने न्यूनतम होने के कई सारे रिकार्ड तोड दिये थे. मैं भी शरीर पर कई तह में कपडे तथा सिर पर कनटोप और मफ़लर के साथ जमा था. कडाके की ठंढ आदमी को प्याज के छिलकों की तरह वस्त्र पहनने को विवश कर देती है. तीन-चार दिनों के बाद ही सही नहाने के लिये आदमी पहने हुए कपड़ों को उतारता है तो एक-एक कर प्याज के छिलकों की तरह ही उसे उतारता जाता है. और गोया पहने हुए वस्त्रों को उतारने में ही एकबारगी थक-सा जाता है. खैर.  कार्यक्रम युवाओं का था. सो, उपस्थित सारे युवा इधर-उधर फ़ुदक रहे थे. इतने-इतने कपडों में लदे-फ़दे गोलू-मोलू बदन के साथ चलने-फ़िरने को फ़ुदकना ही कहेंगे ना !

नये साल के पहले कार्यक्रम के लिये बुलाया तो सभी को गया था लेकिन ऐसी ठंढ में घर छोडना सभी के लिये आसान नहीं होता. तो उपस्थिति भी उसी हिसाब से थी. इस बात से लाला भाई थोडे खिन्न भी थे. लेकिन तुरत ही उन्होने कार्यक्रम की रूपरेखा में परिवर्तन करते हुये इसे केवल भाषणबाजी से भिन्न एक सार्वजनिक बैठक का रूप दे दिया. यानि,  मौज़ूद सारे युवाओं को कार्यक्रम का हिस्सा बनाने का निर्णय कर लिया गया कि सबकी सहभागिता होगी. अब उपस्थित सारे युवा दिये गये विन्दुओं के अनुसार अपनी-अपनी बात कहेंगे. लाला भाई ने विषय भी दे दिया ताकि प्रदत्त विचार एक बिन्दु पर ही केन्द्रित रहें. उपस्थित सारे लोगों से आज का दिवस यानि राष्ट्रीय युवा दिवस मनाये जाने का कारण, स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन परिचय तथा साथ ही साथ अपने आदर्श व्यक्ति का नाम भी बताने को कहा गया था. आदर्श व्यक्ति यानि ऎसा व्यक्तित्व जिसकी तरह वो बनना चाहते हैं. लाला भाई ने सोचा, चलो इसी में आज के युवाओं का मन भी टटोल लिया जाये. उनकी इस तुरत-फ़ुरत घोषणा से मौज़ूद आधे युवा जो किसी तरह कुर्सी पर लदे-फ़दे जमे थे वहाँ से निकल लेने का ढंग ढूँढने लगे. अचानक ही एक-दो सज्जनों को मोबाइल पर काल आ गया. बात करने के बहाने वे वहाँ से निकल लिये. उनके जाते ही एक-दो युवा उनको खोजने के लिये बाहर निकल लिये. कुछ देर के बाद ये पता चल गया कि बात करने वाले और उनको खोजने वाले सभी सज्जन वहां से कलटी मार चुके हैं यानि पलायन कर चुके हैं. अब जो बचे थे वो एक-दूसरे का मुँह देख कर आगे की रणनीति बनाने लगे.

स्वामी जी के चित्र पर माल्यार्पण आदि से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ. कार्यक्रम की रुप-रेखा बदलने से वरिष्ठ वक्ताओं को बाद में बोलने का क्रम दिया गया. लाला भाई भी उनमें से नयी प्रतिभा को खोजना चाहते थे.

पहला वक्ता जो बिल्कुल आराम से कार्यक्रम का मजा लेने आया था और अचानक ही कार्यक्रम की रुपरेखा में आ गया था. उसने एक नजर स्वामी विवेकानद के चित्र पर डाला और उनके सन्यासी रूप को देखते हुये तुरत ही अपने भाषण का प्लाट तैयार कर लिया. उसने स्वामी जी को सच्चाई पर चलने वाला, अत्याचार न करने वाला और एक अहिंसक बाबा बताया. फ़िर तो बाकि बचे वक्ताओं को भी धीरे-धीरे जोश आने लगा. उनमें से एक स्वामी जी के बारे में य भी जानता था कि वो स्वतंत्रता आन्दोलन के आस पास के थे तो उसने उनको स्वाधीनता आन्दोलन का एक जागरुक सिपाही बना दिया. लेकिन उसके बाद उसकी जानकारी खत्म हो गयी थी, इसी से आगे का भाषण उसने पहले वाले का बोलने के क्रम में ही कापी-पेस्ट कर डाला. उसके बाद तो सभी ने बिना ज्यादा सोच विचार के पूर्ववक्ताओं की बातों को थोडा अदल-बदल कर कहना शुरु कर दिया.

उसी में एक युवा जो दिखने से ही कुछ अधिक ही आधुनिक लग रहा था, उसने स्वामी जी के साथ-साथ वहां बैठे हुए सारे लोगों पर पुरातनपंथी होने का आरोप लगाते हुये आधी इंगलिश और आधी हिन्दी में गरजना शुरु कर दिया. उसके अनुसार आज की युवा पीढ़ी को इन सा्धु-संन्यासियों, बाबाओं-स्वामियों के झमेले में डाल कर आयोजनकर्ता क्या कहना और करना चाह रहे हैं !? इस पीढ़ी को उसके अनुसार इन निठल्ले बाबाओं से बच कर रहना चाहिये, कि, ऐसे साधु-संन्यासी एक भ्रमजाल फ़ैला कर सारे समाज को मानसिक गुलाम बनाते हैं. उसने आज के कुम्भ आदि का हवाला देते हुये ऐसे बाबाओं की ऐसी-तैसी कर दी. फिर तो इन-उन बाबाओं के साथ-साथ बेचारे स्वामी जी भी घुन की तरह पिस गये, जिन्होने ऐसे पोंगापंथियों का आजीवन विरोध किया था. अब तो वक्ताओं की वाचालता से धीरे-धीरे विवेकानन्द का वो रुप उभर कर आने लगा जिसके बारे में लाला भाई क्या स्वामी जी खुद भी पूरी तरह से अन्जान होते ! लालाभाई की मुख-भंगिमा दख कर तो एकबारगी लगा कि मामला गया हाथ से.  खैर...

भाषण में एक बात जो अधिकांश ने कही, वो ये कि हमें उनके बताये रास्ते पर चलना चाहिये. लेकिन वो रास्ता क्या था इसका पता अभी तक सामने नहीं आया पाया था. यह सब सुन कर जानने-समझने वाले क्या करते, बस सिर पीट रहे थे.

ये तो केवल एक भाग था युवाओं के विचार का, दूसरा भाग तो बचा हुआ था-- अपने-अपने आदर्श व्यक्ति के बारे में बताने का. जिसके अनुसार वो भविष्य में वैसा ही बनने की कल्पना करते हैं. शुरुआत क्रिकेटरों से हुई जिन्होंने खेल के साथ-साथ कई वस्तुओं के विज्ञापनों-फ़िल्मों से ढेर सारा पैसा बनाया हुआ है. फ़िर आये फ़िल्म अभिनेता, जिनका पात्र के अनुसार अदायगी करने के अलावे अपना कुछ होता ही नहीं. किसी और के लिखे गये डायलोगों को किसी और के बताये डायरेक्सन और स्टाइल में कह भर देना होता है. न उनका अपना चरित्र, न ही कोई आदर्श.  फ़िर भी वे कई युवाओं के आदर्श हुआ करते हैं ! उसके बाद आये राजनेता. उनके बारे में जो न कहा जाये वही कम. इन आदर्शों से एक बात जो निकली, वो ये कि आज का युवा उसे पसंद करता है जो येन-केन-प्रकारेण पैसा बनाते हों, जिनके बडे-बडे पोस्टर लगे हुए होते हों, बात-बेबात छपते हों, बड़ी-बड़ी गाडियों में घूमते हों  और अपने साथ सुरक्षा के नाम पर कई लाइसेंसी असलहाधारी रखते हों. आभासी युग में युवा आभासी दुनिया का जीवन जीने लगे हैं. आदर्श का वास्तविक अर्थ ही भूल गये हैं.

लाला भाई ने अपने समय से आज के समय तक में आये परिवर्तन को बखूबी महसूस किया. ऐसा परिवर्तन अच्छा है या बुरा यह एक विवेचना का प्रश्न है. 

अबतक आज के युवाओं के विचार सामने आ चुके थे. लाला भाई के चेहरे पर परेशानी साफ़ देखी जा सकती थी. उन्होने ने बगल में बैठे तिवारी जी से कहा, "भाईजी, मन बहुत खिन्न और बोझिल हो गया है.." उनके साथ-साथ तिवारी जी भी परेशानी में सिर हिलाने लगे. लेकिन उनकी परेशानी का सबब ही अलग था. वो लाला भाई को ऎसे देखने लगे मानों कह रहे हों कि कहाँ फ़सा दिया भाषणबाजी के चक्कर में ! जल्दी से ये सब समाप्त हो. नहीं तो बचे-खुचे श्रोता-दर्शक भी चले जायेंगे.

हुआ ये था कि इसी कार्यक्रम के साथ युवा दिवस पर एक सांस्कॄतिक कार्यक्रम की भी तैयारी की गयी थी. जिसमें तिवारीजी के घर के बच्चों ने बडी मेहनत से दबंग-2 के ’फ़ेविकोल’ वाले गाने पर डाँस तैयार किया था. अगर सब बोर हो कर चले गये तो फ़िर उनके उस ऊर्जस्वी डांस का क्या होगा ? आखिर युवाओं के कार्यक्रम में मौज-मस्ती धूम-धड़ाका न हुआ तो क्या हुआ ??.... 

--शुभ्रांशु

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 13, 2013 at 3:48pm

वर्तमान स्थिति पर सटीक चित्रण हेतु बधाई.

आदरणीय जी, सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 13, 2013 at 12:32pm

आज की युवा पीढ़ी पर कई तरह के दबाव हैं. सबसे बड़ा तो शिक्षाजन्य दबाव है, जिसके वशीभूत अपने राष्ट्र की अस्मिता, उसके उच्च तथ्यों, वैचारिक रूप से समृद्ध प्रतीकों के प्रति युवाओं के मन में संशय बन जाता है. अपने प्राचीन राष्ट्र को महज़ सैंतालिस का जन्मा देश समझ कर इसकी समस्त वैचारिक अवधारणा को ही खारिज कर देने का कुतर्क रचा जाता रहा है. यह धूर्त-प्रयास अब कितना रंग लाने लगा है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है.  दूसरा दबाव है, भारतीय व्यवहार की सनातनता में छिछली आधुनिकता की अव्यावहारिक छौंक का ! आधुनिकता मात्र वर्जनाहीन व्यवहार की ही पोषक नहीं होती. किंतु, आज के युवाओं की समझ करीब-करीब यही बन रही है. जिसके चलते भारतीय जीवन-शैली ही पटरी से खिसकी हुई चली जा रही है.  तीसरा दबाव है मिडिया द्वारा हो रही स्पून-फीडिंग का. यह सत्य है कि आज युवा गंभीर पढ़ने से कतराने लगे हैं, या, ऐसी समृद्ध परिपाटी ही हाशिये पर चली गयी है.  इस कारण धूर्त किस्म की तथाकथित वैश्विक-पत्रकारिता हल्की और छिछली बातों को युवाओं को घुट्टी में पिला रही है. चौथा और महत्वपूर्ण दबाव है,  आंतक की तरह व्यापते चले जा रहे बाज़ार का. जिस पर कुछ भी कहा जाये वह थोड़ा होगा. 

उपरोक्त वर्णित तथ्यों के नज़रिये से देखा जाय तो प्रस्तुत व्यंग्य ’आज के युवा बनाम राष्ट्रीय युवा दिवस’ बहुत ही सारगर्भित बन पड़ा है. व्यंग्य की धार एकदम से सीधी और झंझोड़ देने वाली है. शुभ्रांशुजी बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहते हैं. व्यंग्य में राष्ट्रीय युवा दिवस के बहाने कई विन्दुवत् बातें साझा हुई हैं. यह सही है कि, आज के युवा बिना आवश्यक और गंभीर अध्ययन के अपने वांगमय, राष्ट्र के प्रतीकों, राष्ट्रपुत्रों और राष्ट्रीय अवधारणाओं पर न सिर्फ़ संदेह करने लगे हैं बल्कि अशिष्ट और थोथी बहस करने लगे हैं. इस तथ्य को सामने लाने के लिए शुभ्रांशु जी बधाई के पात्र हैं. प्रस्तुति में थोड़ी भी बनावट या व्यंग्य के समानान्तर हास्य रखने का मोह तथ्य के कथ्य को ही पूरी तरह से भटका सकता था.

व्यंग्य विधा में इस उचित और सद्प्रयास के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 13, 2013 at 10:27am

भाई शुभ्रांशु जी, सत्य तो यह है कि इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों से ज्यादे उपस्थिति मोहल्ले की नुक्कड़ पर हो रहे तास के खेल (29) पर होता है । आज युवा, युवा दिवस मनाने से अधिक डिस्को पसंद करते है । आपका व्यंग लेख कही ना कही आज की सच्चाई है । बहुत ही सामयिक और सार्थक लेख है भाई जी, बधाई स्वीकार करें ।

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