कोरा कागज़
अगर तू चाहती तो कभी भी
कोरे कागज़ पर मुझको
अँगूठा लगाने को कह सकती थी
और जानती हो, मैं..
मैं ‘न’ न कहता ।
उस कोरे कागज़ पर फिर
तुम कुछ भी लिख सकती थी।
तुमने मेरे नाम पर मुझसे
अधिकार माँगा
मैंने वह आँखें मूँद के दे दिया,
पर जब "तुम्हारे" अपने नाम पर तुमने
मुझसे अधिकार माँगा,
मेरे ओंठों पर हर पल नाम तुम्हारा था,
अत: यह अधिकार मैं तुम्हें दे न सका ।
मेरे धुँधँले-धुँधले सुलगते वजूद ने
नीदों में मेरी तुम्हारा नाम सुना,
सपनों ने सपनों में तुम्हें कई बार बुलाया ।
दर्द भरे अन्धेरों में मैंने
तुम्हें भुलाने के प्रबल प्रयास में,
नींदों के कान बंद कर दिए,
सपनों के ओंठ भी सी दिए,
पर जीते-जागते ख़यालों के गुबार
प्रतिदिन प्रतिरात
तुम्हें सुनते रहे, बुलाते रहे
कि जैसे पल भर को भी भुला न सके ।
तुम तो शूरू से ही शायद
मेरी इस कोमल कमज़ोरी से वाकिफ़ थी,
तभी तो कोरे कागज़ पर तुमने उस दिन
मेरा अँगूठा नहीं माँगा था ।
विजय निकोर
vijay2@comcast.net
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
धन्यवाद नहीं आशीर्वाद दिया कीजिये सर जी ....जय हो
आदरणीय संदीप जी,
अतिशय धन्यवाद।
विजय निकोर
बहुत खूब सर जी ..............क्या भाव पिरोये हैं आपने वाह
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी:
कविता का सुन्दर विश्लेषण करके सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आपकी इतनी अच्छी प्रतिक्रिया मुझे और लिखने को प्रेरित करती है।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय राजेश कुमार जी:
आपने ठीक कहा "मेरा-तेरा का भाव नहीं रहता"
और हमारा मन अपने से पहले दूसरे का हित सोचता है।
सराहना के लिए अतिशय धन्यवाद।
सादर,
विजय निकोर
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति । पूर्णता जब अपनी पराकाष्ठा पर हो तो अक्सर यही होता है, मेरा-तेरा का भाव नहीं रहता, सादर
तुम तो शूरू से ही शायद
मेरी इस कोमल कमज़ोरी से वाकिफ़ थी,
तभी तो कोरे कागज़ पर तुमने उस दिन
मेरा अँगूठा नहीं माँगा था । ------ अटूट विश्वास हो तो यही होता है
बहुत खूब, सुन्दर भावाभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई भाई श्री विजय निकोरे जी
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