मेरे आने और तुम्हारे जाने के बीच
बस चंद कदमों का फासला रहा
न मै जल्दी आया कभी
न कभी तुमने इंतज़ार किया
ये फासला ही तो था
जिसे हमने
संजीदगी और ईमानदारी के साथ निभाया
फासले को
सिमटने नहीं दिया
और न ही
मिटने दिया
हम जुड़े रहे
फासले के साथ
बावजूद
तमाम मुश्किलों और तकलीफ़ों के
वो जिंदा रहा हमारे बीच
फासला बनकर
और हम
मरते रहे, मरते रहे, मरते रहे
अपने–अपने अहम के साथ ...
Comment
बहुत शुक्रिया उपासना जी ....
बहुत सुन्दर रचना ......
भाई अशोक रक्ताले जी आपने रचना के भाव को सराहा
आपका बहुत बहुत शुक्रिया...
आदरणीय नादिर खान साहब सादर,अहम् के परिणाम को बखूबी बताती सुन्दर रचना पर बधाई स्वीकारें.
दीवारें जब अहम् की, बनती हैं जंजीर,
होते तब दो दिल जुदा,कैसी ये तकदीर/
महिमा जी हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया ।
अदरणीय सौरभ जी आप ने रचना को सराहा बहुत शुक्रिया ।
यकीनन फ़ासला ही शुद्ध शब्द है
आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय नादिर भाई, पंक्ति-दर-पंक्ति बड़े गहरे उतरते गये हैं. बहुत-बहुत बधाई. अहं की एक कोर पकड़ चलना जीवन में क्या से क्या रीत जाने का कारण हो जाता है ! भाव निखर कर आये है.
एकबात : शुद्ध शब्द क्या है .. फासला या फांसला ? मैं फासला ही जानता हूँ.
सादर
तमाम मुश्किलों और तकलीफ़ों के
वो जिंदा रहा हमारे बीच
फांसला बनकर
और हम
मरते रहे, मरते रहे, मरते रहे
अपने–अपने अहम ...
क्या बात है आदरणीय नादिर जी .. बहुत -२ बधाई इस सच्ची अभिवयक्ति के लिए
अदरणीय
प्राची जी,विनय जी ,लक्ष्मण जी ,पाठक जी ,संदीप जी एवं राजेश कुमारी जी
आप सभी ने रचना को सराहा
बहुत-बहुत शुक्रिया..
अहम् जीवन की ख़ुशी का सबसे बड़ा शत्रु है यदि प्रेम के बीच आ जाएगा तो फांसले बढ़ ही जायेंगे ,बहुत अच्छी प्रस्तुति नादिर जी बधाई आपको
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