ज़हर भर चुका है दिलों में हमारे
सभी सो रहे है खुदा के भरोसे
जुबां बंद फिर भी अजब शोर-गुल है
हैं जाने कहाँ गुम अमन के नज़ारे
धरम बेचते हैं धरम के पुजारी
हमें लूटते हैं ये रक्षक हमारे
भला कब हुआ है कभी दुश्मनी से
बचा ही नहीं कुछ लुटाते-लुटाते
बटा घर है बारी तो शमशान की अब
यूँ लड़ते हुये हम कहाँ तक गिरेंगे
धरम का था मतलब खुदा से मिलाना
खुदा को ही बांटा धरम क्या निभाते
Comment
आदरणीय सौरभ जी बहुत बहुत शुक्रिया
आपके कोमेंट्स से मै धन्य हुआ
इस रचना को पोस्ट करने के पूर्व संसय था मन में,
एक तो गैर मुरद्दफ़ रचना थी, फिर काफिया भी सिर्फ ए स्वर का था
मगर आपके कोममेंट्स के बाद लग रहा है इसे पोस्ट करके हमने अच्छा किया
मन का संसय जाता रहा
बहुत शुक्रिया आपका ...
इस अंदाज़ पर थोड़ी देर से आ पारहा हूँ, नादिर भाई, इसके लिए दिल से खेद व्यक्त करता हूँ.
हर शेर अपने आप में एक समझ है, अनुभव है और उम्मीद है. हर शेर रवां-दवां है. किसी एक को कोट नहीं कर पा रहा हूँ, मग़र इन दो शेर पर मेरी बार-बार बधाई स्वीकार करें -
बटा घर है बारी तो शमशान की अब
यूँ लड़ते हुये हम कहाँ तक गिरेंगे
धरम का था मतलब खुदा से मिलाना
खुदा को ही बांटा धरम क्या निभाते... ... ..... ग़ज़ब की निग़ाह है.
सादर
अदरणीय डॉ.अजय जी,अरुण पाण्डे जी बहुत शुक्रिया आपने रचना को सराहा ...
बहुत सुन्दर श्री नादिर जी -
NADIR JI BAHUT SUNDER RACHANA HAI EK SANDESH DETI HUI BADHAI
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी आपने रचना को सराहा
बहुत-बहुत शुक्रिया..
बटा घर है बारी तो शमशान की अब
यूँ लड़ते हुये हम कहाँ तक गिरेगे ----------बहुत खूब, नादिर खान जी
धरम का था मतलब खुदा से मिलाना
खुदा को ही बांटा धरम क्या निभाते------- बेहद उम्दा, हार्दिक बधाई स्वीकारे
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