आत्म-खोज
( यह उन सभी को सादर समर्पित है जिन्होंने दर्द को
भले एक क्षण के लिए भी पास से छुआ है, पीया है,
यह उनको आस और प्रोत्साहन देने के लिए है )
कहाँ ले जाएगा यह प्रकंपित जल-प्रवाह
कहाँ ले कर जाएगी यह अप्रतिहत धार,
छोड़ आएगी दूर कहीं, प्रलय-अंधकार में,
या, ले आएगी दुलार-से, प्यार-से मुझको,
मेरे अप्रतिम मनोहर स्वर्णिम
प्रदीप्त प्रमाणित इष्ट के पास!
... कि मैं शीघ्र ढूँढ लूँ उसको
खोज कर ऐसे में स्वयं को,
कि वह तो नहीं था दूर मुझसे
पल भर को भी, कभी भी,
और है नहीं दूर अभी भी,
मैं ही रह-रह कर दूर-दूर उससे,
विशाल विकराल महासागर के
अपरिचित अपरिकलित दूसरे छोर-सा,
अपने असली ‘स्वयं’ से अनभिज्ञ
पा न सका अभी तक उसको,
चाहे था वह सच में सदैव यहीं
मेरे अपने ह्रदय के इतना पास।
समय-असमय अनेक
सांसारिक असत्यों की भीड़ में मैं
उलझ-उलझ कर,
गिर-गिर कर, फिर संभल-संभल,
स्वयं को झूठा आश्वासन देता,
दयनीय बना,
कहता रहा दाएँ को बाएँ,
बाएँ को दाएँ,
यह न सोचा इस प्रकीर्ण अस्तित्व ने
कि सभी कुछ तो यहाँ
माया-दर्पण है केवल,
जिसमें दीखता है सभी-कुछ विपरीत,
अत: जो देखता हूँ इस दर्पण में
वह है मेरा अस्तित्व नहीं,
था नहीं कभी भी,
कि मेरा सही अस्तित्व है मेरा इष्ट,
और वह है मेरे पास यहाँ-यहीं,
पास ही नहीं,
सच तो यह है कि हम हैं एक साथ,
हम दो नहीं, एक हैं, सौम्य हैं ...
हैं एक ही नदिया की एक ही धार।
सोहम ... सो-ह-म !
-----
-- विजय निकोर
vijay2@comcast.net
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया मीना जी:
कविता की सराहना के लिए आपका शत-शत आभार।
विजय निकोर
आदरणीय राम जी:
मेरी रचना में किसी को कुछ मिल जाए, किसी को छू जाए, तो मेरा लिखना सार्थक हुआ।
सराहना के लिए धन्यवाद।
विजय निकोर
विलगता की असह्य पीड़ा, को यह ज्ञान क्षण में हर लेता है, और मीलों के फासले भी इस कदर मिट जाते हैं जैसे कोई मुझसे कभी जुदा ही नहीं,
सच तो यह है कि हम हैं एक साथ,
हम दो नहीं, एक हैं, सौम्य हैं ...
हैं एक ही नदिया की एक ही धार।
सोहम ... सो-ह-म !
सा शिवा सो हम ,हम सा, हम सा शिव सो हम , सो हम हम सा शिवा...
यही तो मन्त्र है एकत्व का, अद्वैत का..
दो है ही नहीं , फिर दूरी , विछोह, कैसा
he walks with me, he talks with me , he says I am his own...
इस भाव को जीते इस रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोर जी .
सादर.
मेरा सही अस्तित्व है मेरा इष्ट,
और वह है मेरे पास यहाँ-यहीं,
पास ही नहीं, सच तो यह है कि हम हैं एक सा
हम दो नहीं, एक हैं, सौम्य हैं ...
हैं एक ही नदिया की एक ही धार।
सोहम ... सो-ह-म !---------आत्म खोज के लिए आत्म बोध होना अति आवश्यक है
और उसके लिए अपने अस्तित्व (आत्मा)अपना इष्ट मान
एकाकार हो सौम्य व्यव्हार जरूरी है । हार्दिक आभार निकोरे जी
सादर नमस्कार .....बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए
हार्दिक बधाई सर................
आपकी इस रचना से बहोत कुछ सीखने को मिला......सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online