रोज़ ढलते सूरज के साथ,
जन्म लेने लगती कुछ बूँदें
रोज़ सुबह उठ, उन बूँदों को भी मै पाता हूँ,
पर खो जाती,वो चढ़ते सूरज के साथ....
तब पूछता मै खुद से....
सूरज ही तो था इनका जनक, फिर...फिर
क्यों कर मिटा दी उसने अपनी ही उत्त्पत्ति?
सोचते-सोचते उभर आती फिर कुछ बूंदे
पर होती नहीं वो ओंस....
और इस तरह ....ढलने लगता ...एक और सूरज
और जन्म लेने लगती फिर कुछ बूँदें ........
"विवेक"
Comment
सुन्दर अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकारें
ओस के माध्यम से बड़ी सुंदरता से आपने अपनी बात कही, बधाई इस सूक्ष्म अभिव्यक्ति पर
प्रक्रति का नियमित रूप से यही कार्य है । सूरज अपना नित नियत कार्य करता है ।भोर पड़े उगना सांझ पड़े छिपना,बनाना, वाष्पीकरण से अपने में समाहित करना ।मानव को इससे सीख लेनी चाहिए जो अनियमित और अनियंत्रितकार्यों में रत है । बहुत अच्छी सीख देती सुन्दर भावाभिव्यक्ति, बधाई विवेक श्रीवास्तव जी
धन्यवाद सर :)
//सोचते-सोचते उभर आती फिर कुछ बूंदे
पर होती नहीं वो ओंस....//
वाह जिस भाव से रचना को आपने सृजित की गई है , वह भाव हुबहू पाठक तक पहुँच रहा है, सुन्दर रचना, बधाई हो विवेक श्रीवास्तव जी |
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