पत्थरों के शहर मे दिल ही टूटते थे अभी,
भरम भी टूट गया अब के, अच्छा ही हुआ..
दोस्ती लफ्ज़ से नफ़रत थी हमको पहले भी,
रहा सहा यकीं भी उठ गया अच्छा ही हुआ..
खुली थी आँखें फिर भी नींद आ गयी जाने,
तुमने झकझोर के जगा दिया अच्छा ही हुआ..
ज़मीन होती क़दम तले तो भला गिरते क्यों,
हवा मे उड़ने का अंजाम मिला अच्छा ही हुआ..
ख्वाब था या के हादसा था जो गुज़र ही गया,
यकीं से अपने यकीं उठ गया अच्छा ही हुआ..
यूँ भी मुर्दे पे सौ मन मिट्टी थी पहले से,
एक मन और पड़ गयी तो क्या , अच्छा ही हुआ..
किसी को मीत अब कहना तो क़दर भी करना,
हमारे साथ खैर जो किया अच्छा ही हुआ..
दराज़ उम्र भला होती क्या दुआओं से,
दुआ की भीख न दी तुमने अच्छा ही हुआ......
Comment
आदरणीय मैम नमस्कार.......
दोस्ती लफ्ज़ से नफ़रत थी हमको पहले भी,
रहा सहा यकीं भी उठ गया अच्छा ही हुआ.....
sahi kaha ..........................
अफसुर्दा होना मेरा तेरा ही अत्फ़ था
तेरे ही तसव्वुर से आब-ए-चश्म यार निकले ......
दर्दे ग़मों की जमीन पर रची गई यह रचना बरबस आकर्षित करती है , आदरणीया सरिता सिन्हा जी , आपकी और रचना तथा साथी सदस्यों की रचनाओं पर आपके बहुमूल्य विचार आमंत्रित हैं ।
इस अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकार करें ।
मंजरी दी, अपने समय दिया , बहुत बहुत धन्यवाद,...
जो हुआ अच्छा हुआ
जो होगा वो भी अच्छा होगा
सुन्दर गजल
बधाई, ईश पुत्री
सस्नेह
पारस्परिक संबंधों और वैचारिक तारतम्यता की टूटन पर आपकी कलम क्य्ता खूब चली है ! दर्द मानो बहते लावा की तरह लगातार पसरता गया है.
ज़मीन होती क़दम तले तो भला गिरते क्यों,
हवा मे उड़ने का अंजाम मिला अच्छा ही हुआ..
इस द्विपदी ने वो कुछ साया किया है जिसका आकाश बहुत विस्तृत है.
भावाभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई.. .
जागती आँखों से अच्छी रचना कर दी अच्छा ही हुआ
उपासना जी, नमस्कार,
मनोभावों को समझने के लिए आपका धन्यवाद..
वेदिका जी नमस्कार,
समय देने के लिए धन्यवाद..
संदीप जी नमस्कार,
एहसास को समझने के लिए धन्यवाद..
प्रिय प्रवीण जी नमस्कार, सच बताऊं मुझे ज़रा भी अंदेशा होता कि आप यहाँ आ सकती हैं तो मैं इस नामुराद रचना को यहाँ पोस्ट ना करती....हा हा हा हा ...
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