हम ढोते हैं अपनी विरासत को
सभ्यता को
संस्कृति को
शाश्वत दर्शन को
बिना जाने
बिना समझे
जीवन में उतारे बिना
हम पूजते हैं
अपने मूल्यों को
बिना समझे
बिना जाने
भटकते हैं
रौशनी के काफिले
हमें गर्व है
अपनी थाती पर
वेदों पर
पुराणों पर
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा
के अवशेषों पर
कटकर
अपनी जड़ों से-
कैसा
माटी का गुणगान ?
अध्यात्म की वृहद चर्चाओं में
कथित 'बाबाओं' की सभाओं में
खेली- खाई 'नैतिकता'
के छलावों में
हम ढोते
हैं आत्मा का बोझ
यह कैसा
राष्ट्रीय चरित्र?
कि हम ढोते हैं ...
महज ढोते ही हैं -
अपनी विरासत को !!!
Comment
यह विडंबना ही है कि पृथ्वी पर किसी सभ्यता द्वारा संकलित अति उच्च अवधारणा की यह परिणति है जहाँ उक्त अवधारणा की शुद्ध-सटीक व्याख्या तक जनमानस के लिए सहज उपलब्ध नहीं है. और, जो सहज उपलब्ध है वह लौकिक विसंगतियाँ हैं जो सामान्य जन के मन में अवधारणाओं के प्रति जुगुप्सा का ही कारण बनती हैं.
कवयित्री ने पौरणिकता से आगे मानवीय इतिहास को संग लिया है. इस क्रम में हुए प्रश्न कटाक्ष की तरह सामने आते हैं.
आजकी जुगुप्साकारी विसंगतियों से सामान्य जनमानस कितना उद्वेलित और भ्रमित है, यह कविता मुखर रूप से सामने लाती है.
आगे, यह कवयित्री का ही दायित्व है कि सभ्यता की उच्च अवधारणाओं के सकारात्मक पहलू से भी जनमानस को विदित कराये.
शुभ-शुभ
हमारी मूल परम्पराएँ तर्क, विज्ञान और अध्यात्म की कसौटियों पर खरी उतरती थीं और प्रासंगिक भी थी. समय के साथ उनमें से कइयों का स्वरुप विकृत हो गया है. प्रशंसा के लिए धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी.
सराहना के लिए आभार राम शिरोमणि जी.
आदरणीया vinita shukla जी ! अच्छे विचारो के साथ भाव भी उत्तम है ..........
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