घर सूना कर बेटियाँ ,जाती हैं ससुराल|
दूजे घर की बेटियाँ ,कर देती खुशहाल||
बेटा !बेटी मार मत ,बेटी है अनमोल|
बेटी से बेटे मिलें ,बेटा आँखें खोल||
घर की रौनक बेटियाँ,दो-दो घर की लाज|
उनको ही आहत करे ,कैसा कुटिल समाज||
खाली कमरा रह गया,अब बिटिया के बाद|
चौखट भी है सीलती ,जब-जब आये याद||
बेटों को सब मानते ,करते उन्नत भाल|
बेटी को अवसर मिलें, छूले गगन विशाल||
बेटी को काँटा समझ ,मत करना तू भूल|
बेटी भी बनकर खिले, उस डाली का फूल||
घटती जाएं बेटियाँ , बढ़ते जाएं लाल|
बिगड़ेगा जो संतुलन,बदतर होगा हाल||
पीढ़ी बेटों से चले , बेटों से ही वंश|
नहीँ रहेंगी बेटियाँ ,कहाँ रहेगा अंश||
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Comment
खाली कमरा रह गया,अब बिटिया के बाद|
चौखट भी है सीलती ,जब-जब आये याद||
हालांकि अभी छोटी है फिर भी इन पंक्तियों ने ये एहसास दिला दिया कि बेटी की शादी के बाद मेरा वक्त कैसे कटेगा।
बहुत सुन्दर रचना! बधाई स्वीकारें। समाज को बेटियों के प्रति अपनी सोच और मानसिकता को बदलने की जरूरत है।
सादर!
आदरणीया राजेश कुमारीजी, यही कदम होना चाहिये हर उस रचनाकार का जो शास्त्रीय छंदों पर काम कर रहा है. छंदों को आधुनिक समय की परिपटियों और समस्याओं से जोड़ दे ! इसी में छंदों की सार्थकता है.
प्रस्तुति का प्रत्येक दोहा न केवल संवेदना के धरातल पर दृढवत संतुलित है बल्कि समाज के नियंताओं से सीधे प्रश्न भी करता है. तो उन्हें सम्यक सलाह भी देता है. ऐसे प्रश्न जिनके जवाब तथाकथित नियंताओं के पास नहीं हैं. वे स्पष्टतः वे इन प्रश्नों या सुझावों पर कुछ नहीं कर सकते, सिवा बँगले झांकने के !
शिल्प और विधान की कसौटी पर कसे हर दोहे सुगढ़ है, सो भले लगते हैं. हर दोहे में आपने एक माहौल बनाया है, आदरणीया. और उसी माहौल में आप दोहों के कथ्य साझा करती हैं. यह आपके रचनाकर्म में लगातार होते जा रहे गठन का परिचायक है. यह अवश्य है कि कतिपय दोहों में थोड़ी और कसावट होनी चाहिये थी.
लेकिन ऐसे दोहे इस दोहा-समुच्चय में एक या दो ही हैं.
यथा,
बेटा !बेटी मार मत ,बेटी है अनमोल|
बेटी से बेटे मिलें ,बेटा आँखें खोल||
यहाँ बेटा शब्द का दो दफ़े आना दोहे की अति आवश्यक नाटकीयता और उसके प्रभाव को कम करता दिख रहा है. दूसरे सम के बेटा शब्द को काश किसी सटीक शब्द से बदल लिया जाता.
इसी तरह,
बेटी को काँटा समझ ,मत करना तू भूल|
बेटी भी बनकर खिले, उस डाली का फूल||
दूसरी पंक्ति अवसर दो बेटी खिले, बन डाली में फूल हो तो शायद बात और सटीक हो सके.
वैसे, यह मेरे मंतव्य मात्र हैं. आपकी के अंदाज़ और आपकी भावना को मैं सदा मान दूँगा.
इस प्रखर और सामयिक प्रस्तुति के लिए बार-बार बधाई, आदरणीया.
सादर
बिटिया के महत्त्व को बहुत सुन्दर सहज शब्दों में अभिव्यक्त किया है आदरणीया राजेश जी...
सादर बधाई इस समाज को चेताती दोहावली के लिए
वाह.. बहुत सुन्दर दोहे प्रस्तुत किये हैं 'बेटी' पर । हार्दिक अभिवादन |
बेटा !बेटी मार मत ,बेटी है अनमोल|
बेटी से बेटे मिलें ,बेटा आँखें खोल||
बेटी को काँटा समझ ,मत करना तू भूल|
बेटी भी बनकर खिले, उस डाली का फूल||
बहुत सुन्दर ।
बहोत की सुन्दर आदरणीया............हार्दिक बधाई
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