मौलिक - अप्रकाशित
खर्राटों के बीच में, सोया आँखें मीच |
पता नहीं किस तरफ से, देह दबाया नीच |
देह दबाया नीच, सींच कर खेत हटा था-
मग में बीचो बीच, सिंह दमदार डटा था |
रविकर मांगे भीख, किन्तु स्वर जाए भर्रा |
निकली लम्बी चीख, थमाती पत्नी खर्रा ||
Comment
हे दइवा.. . क्या कह गुजरे, आदरणीय !?
न किया करें ऐसे प्रेषण.. ..
शुभ-शुभ..
असामान्य मानसिक अवस्था में रचना की गई है-
खीज क्षोभ और हड़बड़ी-
इसीलिए तारतम्य बिगड़ा हुआ है
ऐसी रचनाओं को पोस्ट करने से बचने की कोशिश रहेगी आदरणीय-
सादर -
ए भाई, ई त न बुझाया हमको.. . आ जे बझाया है.. ऊ हम बोलेंगे नहीं.. :-))))
अब तनिका अपनी बुझाहट हमहुँओं को बताइये ..
हा हा हा हा.. . :-)))))))))))
आदरणीय रविकर जी, इस कुण्डलिया के इंगित वाकई दुरूह निकले मेरे लिए..
सादर
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