=========ग़ज़ल =========
झूठ कहता बाप से माँ से हुआ अनजान है
भूल क्यूँ जाता है बेटा वो उन्ही की जान है
है दगा रग रग में जिसकी झूठ जिसकी शान है
दूर से पहचान लें वो इक सियासतदान है
मौन हर मौसम में वो रहता है गम हो या ख़ुशी
इस हुनर को देख शायर हो गया हैरान है
खूब भर लो धन घरों में याद रखना तुम मगर
आखिरी मंजिल सभी की है तो कब्रिस्तान है
हर तरफ ही लूट हत्या रेप ऐसे हो रहे
देख कर लगता नहीं ये मुल्क हिन्दुस्तान है
मार खा खा के न सुधरा आदमी इस मुल्क का
"दीप" शक होने लगा, क्या ये भी इक इंसान है ??
संदीप पटेल ”दीप”
Comment
अच्छी तरह से ग़ज़ल को निभा गये हैं.
दाद कुबूल करें.
आदरणीय अजय सर जी , आदरणीया डॉ प्राची जी सादर प्रणाम
ग़ज़ल को सराहने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया आपका सादर आभार स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
बहुत सुन्दर ग़ज़ल...
हर शेर बहुत अच्छा लगा
हार्दिक दाद पेश है...संदीप जी
DEEP JI AAPNE NISHIT TOUR PE BEHAD TEEKHA VYANG LIKHA HAI BADHAI
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