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//कुछ स्थानों पर हुई त्रुटियों को जान-बूझ कर ग्रहण करना पड़ा,क्योंकि शब्द परिवर्तन से-जो मैं कहना चाहता था वह कह नहीं पा रहा था।//....................
प्रिय विन्ध्येश्वरी जी, यदि हम अपने कथ्य को संतुष्ट करने के लिए शिल्प को ही दर किनार करने लगेंगे तो यह तो रचनाकर्म का मान नहीं हुआ... किसी भी गंभीर रचनाकार को मेरी नज़र में ऐसी छूट कदापि नहीं लेनी चाहिए.. यह मुश्किल है तभी तो साहित्य "साधना" के समतुल्य है.
१."भूमि गगन वायू अनल,और संग में नीर"... दोहे में कथ्य के विन्यास को थोड़ा बदल कर देखिये
२.हिन्दू हिन्दू रट रहे,न जाने हिन्दुत्व।.........यहाँ "क्या" करना उचित होगा क्या?.......यहाँ ' न ' के स्थान पर 'बिन' या 'नहिं' भी किया जा सकता है.
३.
1 1 2 2 2 2 1 2
एफ.डी.आई. से भला,=13.........
मेरे अनुसार तो "एफ= २+१=३" होगा
४.तुम इतनी गुणवान हो,जैसे शॉपिंग मॉल।
कसे जेब जाते सभी,आते खस्ता हाल॥.............इस भाव को तो आप और भी कई तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं, इन्हीं बिम्बों की क्या आवश्यकता है...
ये वस्तुतः समझौते ही कहलाते हैं विन्ध्येश्वरी जी, जिसकी बिना पर गंभीर लेखक तो कई कई बार अपनी ही रचनाओं को खारिज पे खारिज करते जाते हैं और तब तक संतुष्ट नहीं होते, जब तक शिल्प को पूरा न निभा लें..
यह मेरी समझ भर है... वैसे नियमों में छूट को जायज ठहराने के सबके अपने अपने तर्क-कुतर्क होते होते हैं.
आपने मेरे कहे को मान दिया इसके लिए आभारी हूँ आपकी.
शुभेच्छाएँ और स्नेह.
आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी,
सत्ता बादल ओट से,बरसे भ्रष्टाचार।
दादुर टर्राते फिरें,आई मस्त बहार॥
गूंगा शासक देश का,दृष्टि हीन है न्याय।
बहरी जनता भेंड़ सम,देश गर्त में जाय॥......
मनुज मनुज है अब नहीं,गयी मनुजता भूल।
हृदय पुष्प में उग रहे,नागफनी के शूल॥ - बहुत खूब
सभी दोहे अच्छे लगे।
बधाई।
आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी,
सभी दोहे अच्छे लगे।
बधाई।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
बहुत सुन्दर और सन्देश परक सार्थक दोहों के लिए हार्दिक बधाई श्री बिन्ध्येश्वर प्रसाद त्रिपाठी जी यह दोहा बहुत ही भाया -
मनुज मनुज है अब नहीं,गयी मनुजता भूल।
हृदय पुष्प में उग रहे,नागफनी के शूल॥ - बहुत खूब
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