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और नहीं कुछ दीजिये,हे! आगत नववर्ष।
मेरा भारत खुश रहे,सदा करे उत्कर्ष॥

ईश अलख लख जायगा,लख अंखिया निर्दोष।
मान बड़ाई ताक रख,ईश दिये संतोष॥

भूमि गगन वायू अनल,और संग में नीर।
अग्र वर्ण भगवान बन,विरचित मनुज शरीर॥

दुर्भागी तुम हो नहीं,मत रोओ हे! तात।
भाग्य सितारे चमकते,गहन अंधेरी रात॥

राम चंद्र के देश में,छाया रावण राज।
रामसिंह ही कर रहे,हरण दामिनी लाज॥

दुखियारी मां भूख से,मांग मधुकरी खाय।
बेटा बसे विदेश मे,खरबपती कहलाय॥

हिन्दू हिन्दू रट रहे,न जाने हिन्दुत्व।
है सच्चा हिन्दू वही,जे निर्मल व्यक्तित्व॥

गूंगा शासक देश का,दृष्टि हीन है न्याय।
बहरी जनता भेंड़ सम,देश गर्त में जाय॥

मनुज मनुज है अब नहीं,गयी मनुजता भूल।
हृदय पुष्प में उग रहे,नागफनी के शूल॥

एफ.डी.आई. से भला,होगा देश विकास।
पैसा इटली जायगा,अपना सत्यानाश॥

रेप समय बालिग रहा,सजा समय नादान।
सच अंधा कानून है,भारत देश महान॥

गोदामों में सड़ रहा,कुंतल खरब अनाज।
तड़प भूख से मर रहा,ग्राम देवता आज॥

तुम इतनी गुणवान हो,जैसे शॉपिंग मॉल।
कसे जेब जाते सभी,आते खस्ता हाल॥

लुटे द्रोपदी देश में,कृष्ण कहां तुम मौन।
दु:शासन से तुम मिले,लाज बचाये कौन॥

सत्ता बादल ओट से,बरसे भ्रष्टाचार।
दादुर टर्राते फिरें,आई मस्त बहार॥

कीचड़ से गलियां सनीं,चलना नहिं आसान।
बचना तो मुश्किल बहुत,आफत आयी जान॥

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 13, 2013 at 6:44pm

//कुछ स्थानों पर हुई त्रुटियों को जान-बूझ कर ग्रहण करना पड़ा,क्योंकि शब्द परिवर्तन से-जो मैं कहना चाहता था वह कह नहीं पा रहा था।//....................

प्रिय विन्ध्येश्वरी जी, यदि हम अपने कथ्य को संतुष्ट करने के लिए शिल्प को ही दर किनार करने लगेंगे तो यह तो रचनाकर्म का मान नहीं हुआ... किसी भी गंभीर रचनाकार को मेरी नज़र में ऐसी छूट कदापि नहीं लेनी चाहिए.. यह मुश्किल है तभी तो साहित्य "साधना" के समतुल्य है.

१."भूमि गगन वायू अनल,और संग में नीर"... दोहे में कथ्य के विन्यास को थोड़ा बदल कर देखिये 

२.हिन्दू हिन्दू रट रहे,न जाने हिन्दुत्व।.........यहाँ "क्या" करना उचित होगा क्या?.......यहाँ ' न ' के स्थान पर 'बिन' या 'नहिं' भी किया जा सकता है.

३.

1 1 2 2 2 2 1 2
एफ.डी.आई. से भला,=13.........

मेरे अनुसार तो "एफ= २+१=३" होगा 

४.तुम इतनी गुणवान हो,जैसे शॉपिंग मॉल।
कसे जेब जाते सभी,आते खस्ता हाल॥.............इस भाव को तो आप और भी कई तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं, इन्हीं बिम्बों की क्या आवश्यकता है...

ये वस्तुतः समझौते ही कहलाते हैं विन्ध्येश्वरी जी, जिसकी बिना पर गंभीर लेखक तो कई कई बार अपनी ही रचनाओं को खारिज पे खारिज करते जाते हैं और तब तक संतुष्ट नहीं होते, जब तक शिल्प को पूरा न निभा लें..

यह मेरी समझ भर है... वैसे नियमों में छूट को जायज ठहराने के सबके अपने अपने तर्क-कुतर्क होते होते हैं.

आपने मेरे कहे को मान दिया इसके लिए आभारी हूँ आपकी.

शुभेच्छाएँ और स्नेह.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2013 at 5:18pm
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी!आपने रचना को सराहा स्नेह और प्यार दिया रचना व रचनाकार दोनों ही उपकृत हैं।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2013 at 5:16pm
भाई संदीप जी!रचना की सराहना व प्राची दीदी! के सुर में सुर मिलाने के लिये आपको कोटिश: आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2013 at 5:15pm
आदरणीया प्राची दी!कुछ स्थानों पर हुई त्रुटियों को जान-बूझ कर ग्रहण करना पड़ा,क्योंकि शब्द परिवर्तन से-जो मैं कहना चाहता था वह कह नहीं पा रहा था।यथा-
1-//भूमि गगन वायू अनल,और संग में नीर।..................क्या वायु को वायू लिखना उचित होगा?//
यद्यपि यहाँ वायु को वायु लिखना अनुचित है,तथापि मैं यह कहना चाह रहा हूं कि इन्हीं पञ्चतत्वों के प्रथमाक्षर को यदि ले लिया जाये तो भगवान शब्द बनता है।मैं यहाँ मजबूर था।दीदी आप उचित प्रबोध दीजिये।

2-//हिन्दू हिन्दू रट रहे,न जाने हिन्दुत्व।...................सम चरण मात्रा गणना पुनः करें//
यहाँ "क्या" करना उचित होगा क्या?
"हिन्दू-हिन्दू रट रहे,क्या जानें हिन्दुत्व?"

3-//एफ.डी.आई. से भला,होगा देश विकास।................विषम चरण में मात्रा 14 हो रही है//
विषम चरण में 14मात्रा तो नहीं हो रही है दीदी!
इसकी गणना मैंने इस प्रकार किया है-
1 1 2 2 2 2 1 2
एफ.डी.आई. से भला,=13

4-//मॉल और हाल का तुकांत कुछ जम नहीं रहा//
यहाँ भी पहले वाली दिक्कत है।मॉल और हाल का तुकान्त उचित तो नहीं है किन्तु समाधान नहीं सूझ रहा है।

आपने अनुज की रचना पर अपना महत्तवपूर्ण व बहुमूल्य समय दिया रचना व रचनाकार दोनों ही धन्य हुए।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2013 at 4:55pm
आदरणीय केवल प्रसाद जी!दोहों की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार।
Comment by Vindu Babu on March 13, 2013 at 4:45pm
आदरणीय विन्धेश्वरी जी सभी दोहे प्रभावशाली और वर्तमान सन्दर्भ मे बिल्कुल सटीक हैं।
कृष्ण कहां तुम मौन...
बहुत सुन्दर
सादर बधाई
Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 13, 2013 at 4:31pm
आ॰ विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय जी, आपके सभी दोहों में भारत की यथार्थ स्थिति का बोध होता है।
"किस-किस की तारीफ करुं, सब दोहे बलवान।
सत्य का सामना कराए, गीता श्लोक समान।।"
Comment by ram shiromani pathak on March 13, 2013 at 1:19pm

आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी,

सत्ता बादल ओट से,बरसे भ्रष्टाचार।
दादुर टर्राते फिरें,आई मस्त बहार॥

गूंगा शासक देश का,दृष्टि हीन है न्याय।
बहरी जनता भेंड़ सम,देश गर्त में जाय॥......

मनुज मनुज है अब नहीं,गयी मनुजता भूल।
हृदय पुष्प में उग रहे,नागफनी के शूल॥   -   बहुत खूब 

सभी दोहे अच्छे लगे।

बधाई।

Comment by vijay nikore on March 13, 2013 at 10:48am

आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी,

 

सभी दोहे अच्छे लगे।

बधाई।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 13, 2013 at 10:42am

बहुत सुन्दर और सन्देश परक सार्थक दोहों के लिए हार्दिक बधाई श्री बिन्ध्येश्वर प्रसाद त्रिपाठी जी यह दोहा बहुत ही भाया -

मनुज मनुज है अब नहीं,गयी मनुजता भूल।
हृदय पुष्प में उग रहे,नागफनी के शूल॥   -   बहुत खूब 

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