प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...
गूँज लें सारी फिजाएँ
युगल मन मल्हार गाएँ
चंद्रिकामय बन चकोरी
प्रेम उद्घोषण करूँ...
प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...
मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित
तोड़ कर हर बंध शापित
नेह पूरित निर्झरित उर
गान से तर्पण करूँ...
प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...
भाव झंकृत हृदय धड़कें
सुरमई सब स्वप्न थिरकें
सहज संवेदना स्वीकृत
सर्वदा हो प्रण करूँ...
प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...
उड़ चलूँ विस्तार लेकर
तर्कणों का सार लेकर
मरघटों की क्षुब्धता को
ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ...
प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...
Comment
आदरणीया विजयश्री जी,
मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है..
आपने इस नवगीत का रसास्वादन कर अपना बहुमूल्य स्नेह इस रचना को दिया, इस हेतु आपकी आभारी हूँ..
आदरणीय आशीष सलिल जी,
रचना को आपनें अपनी रूह तक उतर जाने योग्य समझा, इससे ज्यादा मान एक रचना के लिए क्या हो सकता है?
आपकी हृदय से आभारी हूँ.
आदरणीया राजेश कुमारी जी,
नवगीत के अन्तर्निहित भावों और शब्द संयोजन को आपने सराह कर लेखन उत्साह का परिवर्धन किया है...आपकी हृदय से आभारी हूँ.
सादर.
आदरणीय केवल प्रसाद जी,
रचना के शब्द आपके मन को झंकृत कर सके, लेखन को और क्या चाहिए, सिर्फ पाठकों के हृदय में स्थान के सिवा.
इस हेतु आपका हार्दिक आभार.
..आदरणीय, इस रचना में कहीं भी नारी मन की कुंठा को शब्द नहीं दिए गए हैं, इसमें सिर्फ प्रीत की स्वीकारोक्ति और नेहातिरेक है.
सादर.
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी,
रचना के भावों के अन्तःस्थल को आप द्वारा मान मिला, इस हेतु आपकी हृदय से आभारी हूँ..सादर.
आदरेया प्राची दीदी बहुत ही सुन्दर गीत प्रस्तुत किया है आपने पाठ करते करते न जाने कहाँ खो गया, ह्रदय में उठ रहे भावों को कैसे व्यक्त करूँ क्या कहूँ शब्द मिल नहीं पा रहे हैं. इस तरह के गीत कभी कभी पढ़ने के लिए मिलते हैं. अन्य कुछ कहने की क्षमता नहीं है, हार्दिक बधाई स्वीकारें.
प्राची बहन आपका साधुवाद इस मर्मस्पर्शी रचना के लिए। रचना ने पाठक के मन में भी शुचि भावना जागृत कर दी।
आदरणीया प्राची जी:
"रे मन करना आज सृजन वो" के बाद "मनमीत तेरी प्रीत" और अब "भावना अर्पण करूँ..."
यह एक और उच्च श्रेणी की रचना है जिसको पढ़ते-पढ़ते कोई लय बिना प्रयत्न के ओंठों पर
गीत-सी बन आती है, और आपकी कविता के शब्द कविता समाप्त होने के बाद देर तक
अंतरमन में प्रतिगुंजित होते रहते हैं और आत्मीय बन जाते हैं।
मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित
तोड़ कर हर बंध शापित
नेह पूरित निर्झरित उर
गान से तर्पण करूँ... ....अति सुन्दर!
ऐसी ही कविताओं की प्यास है ... आशा है, शीघ्र और पढ़ने को मिलेंगी और आस पूरी होगी।
सादर,
विजय निकोर
भाव संप्रेषण की वाचालता अपने अतिरेक में शब्दातीत ही हो जाती है. निवेदन की भाव-सान्द्रता शब्द-साधन को सबसे पहले नकारती है. उन अत्युच्च क्षणों में विह्वल प्राण की मनोदशा का सूक्ष्म वर्णन हुआ है. पारस्परिक आर्द्रता में अभिसिंचित युगल मन द्वारा मल्हार राग का गाना अभिनव प्रयोग लगा. कहना न होगा, एक -एक पंक्ति प्राणवान है. तभी तो - मरघटों की क्षुब्धता को / ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ... अभिव्यक्त हो पाया है.
वाह !
शब्द-संयोजन सुन्दर है, यों, इसे तनिक और साधा जा सकता था.
यथा, इस पंक्ति को देखा जाय - सहज संवेदना स्वीकृत / सर्वदा हो प्रण करूँ...
भाव-विह्वलता और आत्मोसर्ग की शुभता से अभिसिंचित इस रचना के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, डॉ.प्राची.
शुभ-शुभ
मरघटों की क्षुब्धता को
ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ...
प्रसंशा के शब्द भी शब्दातीत हो गए हैं किन्तु शुचि भावना का अर्पण स्वीकारें ---- लोहा पीटनेवाला इससे ज्यादा नहीं व्यक्त कर पायेगा .प्राचीजी ! साधुवाद .
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