घण्टियों की
खनखनाती खिलखिलाहट
से गूँज उठी
हर पूजास्थली..
मन्नत की
लाल चूनर और रंगीन धागों के
ग्रंथिबंधन में आबद्ध हुए सारे स्तम्भ
और बरगद पीपल की हर शाख..
माँ के दर फैलाये झोली,
जोड़े कर, झुकाए सर,
नवदम्पत्ति मांग रहे हैं भिक्षा-
पुत्र रत्न की...
और हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं !!!
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उड़ान भरने को व्याकुल
पर फड़फड़ाते घायल परिंदे सा बेबस
सहमा सिसका
संघर्षरत
अपने वजूद को तलाशता
शोषण दोषण मोषण से आक्रान्त
कुकृत्यों के कुहासों में
नित दफ़न होता
नारी अस्तित्व.....
क्या आज फिर महिला दिवस है ?
Comment
आदरणीया राजेश जी,
सभ्य समाज के उच्च वर्ग में भी महिलाओं के ह्रदय में व्याप्त इस औपचारिकता के खोखलेपन को देख मन क्रंदित था... सो मन की भावनाएं जस की तस लिख दीं थी...
इन भावों को आपका अनुमोदन प्राप्त हुआ.. इस हेतु हृदय से आभारी हूँ
सादर.
प्रिय प्राची जी आपकी ये उत्कृष्ट प्रस्तुति ना जाने इतने दिनों बाद दिखाई दी या कहिये कुछ दिनों से मैं ही इतनी व्य्स्त थी ओ बी ओ पर भी बहुत कम आना हुआ महिला दिवस परबहुत कुछ लिखा भी और आयोजनों में हिस्से भी लिए पर जो बात मेरे मन में थी वो आपने बड़ी खूबसूरती से कलम बद्ध की जब तक हमारे व अन्य देशों में लोगों की मानसिकता जड़ से नहीं बदलेगी तब तक महिला दिवस हमारा मुँह ही चिढ़ायेगा हार्दिक बधाई इस सुंदर लेखन हेतु|
रचना के यथार्थ तत्व को आपने पसंद किया इस हेतु धन्यवाद आदरणीय बृजेश जी
आदरणीया प्राची बहन, आपकी दोनों रचनाओं के हर शब्द ने वास्तविकता को रेखांकित किया है। इस सुंदर रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई!
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी
यह यथार्थ सम्प्रेषण आपको उचित लगा आदरणीय ओम सप्रा जी...हार्दिक आभार
आदरणीय सौरभ जी सादर आभार..
औरत के कभी ना ख़त्म होने वाले हौसले को मान देता है यह दिन "महिला दिवस".
लेकिन जब तक समाज की गहन जड़ों तक जम चुकी संवेदनहीनता नहीं मिटती और उससे भी बढ़ कर जब नारी ही सारी मानसिक बेड़ियाँ तोड़ स्वयं के और पूरे नारी समुदाय के अधिकारों के लिए नहीं सामने आतीं ......ये आन्दोलन रैली अभियान सब एक दिन के लिए ही चंद गलियों और मंचों पर गूँज कर ख़त्म हो जायेंगे, बिना कोई प्रगति किये....
बस यही दुखद लगता है.
//वह कहीं उस षडयंत्र का शिकार तो नहीं हो रही जिसके अंतर्गत निरंकुश बाज़ार और पुरुष संचालित मठों ने उसके गिर्द बिछा रखा है//
कितना सही कहा है आपने आदरणीय...स्वतंत्रता के मायने ही ना समझनेवाला नारी वर्ग का एक हिस्सा इस निरंकुश बाजार में स्वयं को एक उत्पाद की तरह पेश करता रहा है.. मूर्खता के अधीन हो ये कैसा खुलापन है? मुझे भी समझ नहीं आता..
सादर.
नित दफ़न होता
नारी अस्तित्व.............कैसा महिला दिवस ? सही कहा है, जब तक जाक्रुकता लाकर नारी अस्तित्व के प्रश्न चिन्ह
को नहीं मिटाया जाए, तब तक महिला दिवस मना इतिश्री कर लेना का कोई अर्थ नहीं है | इसके लिए महकवि
सुमित्रा नंदन पन्त की इस रचना पर ध्यान देकर सरकार समाज और व्यक्ति को प्रयास करना होगा -
''युग -युग की कारा से मुक्त करो नारी को,
मुक्त करो हे मानव !जननी,सखी प्यारी को।''
हार्दिक बधाई इस सोच भी रचना के लिए डॉ प्राची जी
dr prachi ki mahila diwas par achhi kavitayen hain, badhai ho
dhanyavad,
-om sapra, delh-9
जिस यथार्थ को एक कवि-हृदय प्रतिदिन अपने आस-पास देखता है उस यथार्थ के विरुद्ध वह पहला प्रतिकार संपूर्ण नारी जाति को उपकृत करते दिन विशेष और लुभावने नारों को नकार कर करता है. यह कदम नारी समुदाय के उस साहस और मानसिक स्थायित्व से परिचित कराता है जो उसने तिल-तिल कर अर्जित किया है न कि इसे किसी उदार स्वयंभू से अहसानों का पुरस्कार सदृश लिया है.
आगे, नारी को स्वयं यह देखना होगा कि लोक-लुभावने नारों से प्रभावित हो कर वह कहीं उस षडयंत्र का शिकार तो नहीं हो रही जिसके अंतर्गत निरंकुश बाज़ार और पुरुष संचालित मठों ने उसके गिर्द बिछा रखा है.
बहुत-बहुत बधाई आदरणीया इस सोच और अभिव्यक्ति पर.. .
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