अभी हाल में मुझे एक उच्च मध्यम वर्ग के यहाँ पूजा (सत्य नारायण भगवान की पूजा) में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ! बड़े अच्छे ढंग से तैयारियां की गयी थी. सफाई सुथराई का भी पूरा पूरा ख्याल रखा गया था. उम्मीद यह थी कि पूजा में बैठने वाले यजमान और उनकी श्रीमती बिना कुछ खाए पूजा में बैठेगें ... पर यह क्या ? सुनने में आया कि सत्यनारायण भगवान की कथा में यह बाध्यता नहीं है. फिर क्या, सभी लोगों ने जमकर इडली और बड़े खाए पंडित जी भी सहभागी बने. उसके बाद पूजा के क्रिया-कलाप प्रारंभ हुए. पंडित जी को कहा गया था कि वे सभी पूजन सामग्री, तथा अपने और पंडिताईन के लिए वस्त्र भी जरूरत और अपनी पसंद के अनुसार अपने साथ ही लेते आयें! 'बिल' का पेमेंट कर दिया जायेगा. ... पंडित जी बड़े ही आज्ञाकारी प्रवृत्ति वाले लगे और सब कुछ उन्होंने यथावत सजा दिया. बीच बीच में यजमान और घर के सदस्यों से कुछ कुछ मांगते और बताते रहे, ताकि धार्मिक माहौल बनाया जा सके! पूजा का स्थान जो घर में निर्धारित स्थान में बनाया गया था ( आज कल फ्लैट्स में भी पूजा स्थान, आधुनिक प्रणाली के हिशाब से बना दिया जाता है). पंडित जी ने उस फ़्लैट के पूजा स्थान को उपयुक्त (बिलकुल सही) बताया, क्योंकि शास्त्र में यही वर्णित है. जबकि उस फ्लैट के सामने वाले फ़्लैट में उसके ठीक विपरीत स्थान पर होना चाहिए ...पंडित जी जब वहां पूजा कराने जायेंगे, तो क्या कहेंगे ? (मुझे नहीं पता)...
सब ब्यवस्था हो जाने के बाद पंडित जी और यजमान के बैठने और पूजन सामग्री अर्पण करने में असुविधा की आशंका हुई, तब कुछ सामान इधर से उधर घिसका कर पंडित जी के लिए उपयुक्त स्थान बनाया गया .... किन्तु यह क्या? पंडित जी ने उस जगह पर पहले ही, पवित्र करने के लिए थोड़ा जल छिड़क दिया था. उसपर आसन बिछाने से आसन को भींगने का डर था. जल को कपड़े से पोंछने के लिए सफाई करने वाली नौकरानी को आवाज लगाई गयी. पर उसने उपस्थिति न दिखाई ... फिर गृह-स्वामिनी ने एक छोटे सूखे कपड़े से जल को सुखाने के लिए फर्श को पोंछने का प्रयास किया ... उस प्रयास में गृह स्वामिनी का साड़ी भी भींग गया, पर जल पूरी तरह से न सूखा ... फिर गृह स्वामिनी की देवरानी ने हिम्मत दिखाई. दूसरे सूखे कपड़े ले आयी, पर आदत न होने के कारण बेचारी का प्रयास भी असफल ही रहा ... फिर गृह स्वामी ने पंखे चलाने का आदेश दिया ... थोड़ी ही देर में ठंढक महसूस होने लगी, इसलिए पंखे को बंद कर दिया गया. फिर इस उम्मीद से कि आसन नहीं भींगेगा, उस गीले जगह पर डाल दिया गया, और पंडित जी को आसीन होने को कहा गया. पंडित जी फिर से वातावरण बनाने में लगे. तबतक मुझे झपकी आ गयी थी.... मैं रात में ठीक से सो नहीं सका था, शायद इस वजह से या नीरसता की वजह से! ... तभी शंख बजने की आवाज सुनायी पड़ी और पता चला कि पहला अध्याय समाप्त हो गया ...अब मैंने कथा सुनने की तरफ ध्यान लगाया और पंडित जी भी मेरी तरफ ध्यान देकर कथा को रोचक बनाने का भरपूर प्रयास करते रहे. मैंने बाकी के चार अध्याय ध्यान से सुने और हवन, आरती आदि में भी भाग लिया. पंडित जी की खासियत यह थी कि हवन सामग्री के अनुसार ही उनके देवताओं की संख्या बढ़ती जाती थी. सभी नाश्ता कर चुके थे इसलिए किसी को भूख या अन्य किसी भी कारण से जल्दी न थी, रविवार का समय था, इसलिए सभी रिलैक्स थे. पंडित जी की घड़ी में अभी दो नहीं बजे थे.(पंडित जी के ही अनुसार दो बजे खाने का समय होता है!) दो बजते ही कथा की सारी विधियाँ समाप्त हो गयी और अब प्रसाद वितरण होने लगा. फल काफी थे और बड़े बड़े भी थे. पेड़े और चरणामृत भी थे. अब प्रसाद को ठीक ठीक सजाने या फलों को काटने का समय नहीं था. इसलिए पंडित जी ने लौटरी सिस्टम लागू किया. जिसके भाग्य में जो आ जाय! .... इस तरह किसी के भाग्य में पेड़े आए, तो किसी के भाग्य में केले. किसी को सेव मिला तो किसी को अनार! पपीते का आकार बड़ा था इसलिए उसे हाथ न लगाया गया. किसी भक्त ने चरणामृत या चूरण से ही संतोष कर लिए ..."असली प्रसाद तो यही है!"
अब पंडित जी को भूख लग गयी थी. उन्होंने ने ही बताया आप लोग भी आइये ... बैठ जाइये एक ही साथ खाना खा लेते हैं. पंडित जी का आदेश भला कौन टाल सकता है? सबों ने छक कर सुस्वादु भोजन का लुत्फ़ उठाया. उधर गृहस्वामिनी की सास अन्दर ही अन्दर कुढ़ रही थी ... कैसा पंडित है, खुद तो खा ही रहा है, सबको साथ बैठकर खाने को कहने लगा. उसे 'खाना खाकर जाइये' कहने की जरूरत नहीं थी!
जेठानी और देवरानी बहुत खुश थी. आज उनलोगों ने कथा का आयोजन करवाया और इतने लोगों को खाना खिलाया. बहुत ही पुण्य-लाभ मिलेगा ... प्रतिदिन ऑफिस जाने आने के क्रम में भगवान को याद रखने का समय ही कहाँ मिलता है? ऑफिस में बॉस की घुड़की और घर में पति का आदेश! सबके साथ सामंजस्य बैठाकर चलना बड़ा मुश्किल काम है! ऊपर से बूढ़ी सास के नखरे ...
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया उषा जी, सादर अभिवादन!
उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का आभार!
बहुत ही बढ़िया कथा वाचन!
गंगाजल छिड़क कर फिर उसे सुखाने की प्रक्रिया अच्छी मनोरंजक लगी...
बधाई|
aडरने श्री शिरोमणि पाठक जी, सादर अभिवादन!
चलिए आपको आनन्द आ गया, मुझे संतुष्टि हुई! आपका आभार!
आदरणीय श्री राजेश झा जी, सादर अभिवादन!
आपने सही कहा, पंडित जी के बारे में, आजकल न तो वे पंडित जी रहे न ही वैसे यजमान. खानापूर्ति ही तो हो रही है. इसीलिये तो मैंने इस प्रसंग को यहाँ डाला. आपकी प्रतिक्रिया का आभार!
आदरणीय जवाहर लाल जी ,बहुत सुंदर कथा सुनाई आपने .आनंद आ गया ...हार्दिक बधाई
हाहाहा लगता है पंडितजी चाट पकौड़ी बेचते थे जो आसन शुद्ध करने के लिए एक लोटा जल ढाल दिए, अच्छा पंडित खोजकर पूजन करावें, माहौल भी होगा और आनंद भी
आदरणीया कुंती जी, सादर अभिवादन!
आगे तो अभी बहुत कुछ देखना बाकी है! आपका आशीर्वाद मिला ... बहुत बहुत आभार!
आदरणीय श्री केवल प्रसाद जी, सादर अभिवादन!
मुझे ऐसा लग रहा है कि आप यह प्रतिक्रिया मेरे द्वारा पूर्व में प्रकाशित कहानी 'दो भाई' के बारे में देना चाह रहे थे. वह कहानी पञ्च किश्तों में पूरी हो चुकी है! आपकी प्रतिक्रिया का आभार!
आदरणीय श्री लक्ष्मण प्रसाद जी, सादर अभिवादन!
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का आभार!
आदरणीया डॉ. प्राची, सादर अभिवादन!
आपने बिलकुल सही कहा है. घरेलू महिलाएं तो और ज्यादा प्रदर्शन करती हैं, मैंने बस एक उदाहरण दिया है और जो देखा वही बया किया है! यहाँ पर दोनों महिलाएं कार्यरत हैं इसलिए उनके गृह कार्य में अकुशलता नजर आई ... मेरा ध्यान वहीं गया था.आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया का आभार!
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