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कुम्हार सो गया

थक गया होगा शायद

 

मिट़टी रौंदी जा रही है

रंग बदल गया

स्याह पड़ गयी

 

चाक घूम रहा है

समय चक्र की तरह

लगातार तेजी से

उस पर जमी

मिट्टी तेज धूप में

सूख गयी

उधड़ रही है

पपड़ियों के रूप में

 

पछुआ हवाओं के साथ

उड़कर आयी

रेत और किनकियां

चारों तरफ बिखरी हैं

रौशनी में चमकती हुई

उड़कर आंख में पड़ जाती है

जब तब

चुभती हैं

 

चारों तरफ बिखरे बर्तन

धीरे धीरे समय बीतने के साथ

टूटते जा रहे हैं

कच्चे और अधपके बर्तन

टूटकर मिट्टी में मिल गये

रेत और किनकियों के साथ

 

ठंडी पड़ती जा रही

भट्टी की आंच

 

अब बर्तन नहीं बचे

घर में

पानी पीने को भी

 

कुम्हार!

क्या जागोगे तुम?

 

जागो

इस आंच को तेज करो

उठाओ डंडी

घुमाओ यह चाक

इस रेत और किनकियों से इतर

तलाशो साफ मिट्टी

चढ़ा दो चाक पर

बना दो नए बर्तन

हर घर के लिए

 

ये सोने का समय नहीं।

         - बृजेश नीरज

 ओ बी ओ की वर्षगांठ पर सभी को मेरी शुभकामनाएं!

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Comment by बृजेश नीरज on April 3, 2013 at 6:52pm

आदरणीय विजय जी आपका बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on April 3, 2013 at 6:51pm

राजेश जी मैंने भी अपनी यह कविता अभी पढ़ी तो मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा।

Comment by बृजेश नीरज on April 3, 2013 at 6:48pm

आदरणीय विजय जी आपका बहुत आभार!

Comment by विजय मिश्र on April 3, 2013 at 6:22pm

आपको भी ओ बी ओ के वर्षगाँठ की अनेक शुभाशंसाएँ भाई बृजेशजी और सचमुच अच्छी मिट्टी का अभाव और उसकी वजह से बर्तन का गढन भी बिगड़ गया है .  जगकर सुथर मिट्टी ढूडने के दौर में हैं हम ताकि सुन्दर आकार के साथ गढन में सुन्दर संस्कार भी उभरे. काव्य का अंतर्निहित सन्देश और कविता दोनों ही प्रसंशनीय .

Comment by राजेश 'मृदु' on April 3, 2013 at 1:15pm

बहुत से बिंब हैं इस रचना में यदि सावधानी से ना पढ़ा जाए तो पूरी कविता एक गड़बड़झाला प्रस्‍तुत करती है पर सावधानी से पढ़ने पर सबकुछ स्‍पष्‍ट हो जाता है, बहुअर्थी बिंबों को समझना कुछ कठिन लगा, सादर

Comment by vijay nikore on April 3, 2013 at 9:31am

आदरणीय बृजेश जी:

 

कविता के सारे भाव अच्छे लगे..

 

//कुम्हार!

क्या जागोगे तुम?//

यह २ पंक्तियाँ हैं जो कविता का सार हैं

और रह-रह कर पठक को झकझोरती हैं,

उठने को, जागने को, प्रेरित करती हैं।

 

बधाई।

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 10:19pm

आदरणीया कुन्ती जी, आपका आभार!
लेकिन मेरे और आप दोनों के लिए एक राहत है कि इस कविता का भावार्थ आदरणीय गुरूजनों ने उपलब्ध करा दिया। मैं स्वयं भी शायद ऐसा प्रस्तुतीकरण न कर पाता जैसा गुरूजनों ने किया है। यह भी मेरे लिए एक सीखने की बात हुई।

Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 10:04pm

संदीप भाई आपका आभार! आपको नवनियुक्ति पर बधाई। नई जिम्मेदारी पाने के बाद मेरी रचना पर आपकी टिप्पणी देखकर मुझे सुखद अनुभूति हुई। 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 2, 2013 at 9:54pm

बहुत सुन्दर कविता रची है आपने

सच कहा आपने ये वक़्त सोने का नहीं हैं ने गढ़ने का है वाह

बेहतरीन रचना

बहुत बहुत बधाई हो आपको

Comment by coontee mukerji on April 2, 2013 at 8:04pm

नीरज जी  हम बचपन में दार्शनिक कविता पढ़ते थे  जिसका भवार्थ करना होता था.आपकी कविता पढ़ आज वही दिन याद आ गया

पढ़ना सोचना समझना. इसके भाव बड़े गम्भीर है .

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