बहर : हज़ज मुसम्मन सालिम
वज्न: १२२२, १२२२, १२२२, १२२२
रदीफ़ों काफियों को चाह पर अपने चलाता है,
बहर के इल्म में जो रोज अपना सिर खपाता है,
हुआ है सुखनवर* उसकी कलम करती ग़ज़लगोई*,
सभी अशआर के अशआर वो सुन्दर बनाता है,
कभी वो लाम* में जागे कभी वो गाफ़* में सोये,
सुबह से शाम तक बस तुक से अपने तुक भिड़ाता है,
मुजाहिफ* को करे सालिम, करे सालिम* मुजाहिफ में,
वो रुक्नों के तराजू में वजन रखता हटाता है,
इजाफत* की पढ़े भाषा नियम तक़्ती'अ का समझे,
तखल्लुस* का सही उपयोग मक्ता* में कराता है,
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
सुख़नवर* = उर्दू काव्य लिखने वाला
ग़ज़लगोई* = ग़ज़ल लिखने की प्रक्रिया
लाम* = लाम का अर्थ होता है “लघु” और इसे १ मात्रा के लिए प्रयोग करते हैं
गाफ़* = गाफ का अर्थ होता है दीर्घ और इसे २ मात्रा के लिए प्रयोग करते हैं
इजाफत* = उर्दू भाषा में इज़ाफ़त का नियम है जिसके द्वारा दो शब्दों को अंतर सम्बंधित किया जाता है
तखल्लुस* = उपनाम
मक्ता* = ग़ज़ल का आख़िरी शे'र
मुजाहिफ* / सालिम* = रुक्न के नाम
Comment
भाई अरुण जी सुन्दर गजल लिखी है पढ़कर मजा आ गया बधाई स्वीकारें, आदरणीय सौरभ जी की प्रतिक्रया से बहुत कुछ सीखने मिला है.
आदरणीय अरून शर्मा’अनन्त’ जी, मुझे गजल तो पसंद है पर कभी लिखा नहीं। आप द्वारा प्रस्तुत गजल को पढ़कर ऐसा लगा कि मुझे गजल लिखने की प्रथम सीढ़ी मिल गई हो। सुन्दर, यहां पर गुरूवर जी की टिप्पणी से और भी साफ हो गया कि ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता है‘। सार्थक प्रयास। सादर,
अरून भाई बहुत सुन्दर प्रयास! बधाई स्वीकारें!
अच्छा प्रयास है
बधाई स्वीकारें
एक बढिया और रोचक प्रयास जल्दबाज़ी की भेंट चढ गया.
एक तथ्य तो यह भी है कि प्रयास न किया गया तो फिर सम्यक अभ्यास होगा कैसे ? सही है. किन्तु, भाषायी व्याकरण या शब्दों के प्रयुक्ति स्वरूप तो स्वाध्याय के विषय हैं भाई.
दूसरे, यह ग़ज़ल किनके लिए कही गयी है, यह स्वयं में एक रोचक प्रश्न है !
रदीफ़ों काफियों को चाह पर अपने चलाता है,
बहर के इल्म में जो रोज अपना सिर खपाता है.. . बहर का वज़्न २१ है भाई. इसे शहर के बरअक्स तो हम न ही रखें. या बह्र का बहर स्वरूप मान्य हो गया है ? मुझे इसकी जानकारी नहीं है.
हुआ है सुखनवर* उसकी कलम करती ग़ज़लगोई*.... सुखनवर का सही उच्चारण सु-खन-वर होता है यानि यह मिसरा बहरियाया.
सभी अशआर के अशआर वो सुन्दर बनाता है,.. . .
कभी वो लाम* में जागे कभी वो गाफ़* में सोये,
सुबह से शाम तक बस तुक से अपने तुक भिड़ाता है.. .. अपने तुक कभी नहीं, बल्कि सदा अपनी तुक.
मुजाहिफ* को करे सालिम, करे सालिम* मुजाहिफ में,
वो रुक्नों के तराजू में वजन रखता हटाता है,..... ... मुज़ाहिफ़ में सालिम कुछ अटपटा लग रहा है. रुक्न का बहुवचन अरकान होता है. और, चूँकि, तराज़ू स्त्रीलिंग में व्यवहृत होता है अतः रुक्नों की तराज़ू सही वाक्यांश होगा. यही हाल वज़्न का हुआ कि वज़न मान्य है या वज़्न ?
इजाफत* की पढ़े भाषा नियम तक़्ती'अ का समझे,
तखल्लुस* का सही उपयोग मक्ता* में कराता है... . . इज़ाफ़त की भाषा क्या होती है ? हमने तो, भाई, इज़ाफ़त के नियम ही पढ़े हैं. इसी तरह से तक्तीह के नियम नहीं होते बल्कि यह स्वयं में एक ’तरीका’ है.
भाईजी, प्रविष्टियाँ पाठकों को चौंकाने के उद्येश्य से न हो कर विधाजन्य भाव-प्रेषण के लिये हों. चौंकाना कभी-कभार तो यों ठीक भी है... . लेकिन उसके पहले हम सुगढ़ और सम्यक अभ्यास तो कर लें.
शुभेच्छाएँ.. .
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