ढाक अमलतास पे, आ गयी बहार देखो,
सेमर भी कुसुमित, फाग का महीना है |
सारे रंग लाल-लाल, फूलों पर दिखाई दें,
कुहु-कुहू कोयल की, राग का महीना है |
सूरज का ताप तन, बदन झुलसायेगा,
तपन दहन वह्नि, आग का महीना है |
सैर सपाटा सुबह, मन में उल्लास भरे,
नदियाँ तलाव नीर, बाग़ का महीना है ||
मौलिक / अप्रकाशित.
Comment
प्रिय अशोक भाई सुन्दर छंद ...मनहरण मनभावन ..मनोहारी ...रंग खिल रहे हैं
सादर आभार भाई राम शिरोमणि जी.
आदरणीय श्री अशोक सर बहुत सुन्दर मनभावन आपको बहुत बहुत बधाई।
आदरणीय संदीप जी सादर, जी सच है समयाभाव के कारण मैं भी कई दिनों से आपकी गजलों से वंचित रहा हूँ. आपकी शुभकामनाओं के लिए ह्रदय से आभार.यूँ ही स्नेह बनाए रखें.सादर.
आदरणीय केवल प्रसाद जी बहुत बहुत आभार.
आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जी हाँ सुबह सपाटा सैर... से अवश्य ही सुधार हो रहा है, मुझे लगता है मैं अब इस लय के कुछ और नजदीक पहुँचा हूँ. आपके सुझावों ने इस छंद की गति पर जो प्रकाश डाला है मैं उसे आत्मसात करने का प्रयास करूँगा. सादर आभार.
आदरणीय अशोक जी,
कई मास के पश्चात आपकी रचना का रसास्वादन करने के उपरान्त टिप्पणी करने का भी अवसर प्राप्त हुआ है..!! इतने सुन्दर छंद और उतने ही सुन्दर भाव..!! सादर शुभकामनाएँ..
आदरणीय श्री अशोक कुमार रक्ताले जी, फाग का महीना है..अतिसुन्दर एवं मनभावन। आपको बहुत बहुत बधाई।
आप द्वारा ही संशोधित घनाक्षरी अच्छी बन पड़ी है.
सैर सपाटा सुबह के क्रम को ठीक उलट दें तो देखिये स्वर परभी वह पद आ जायेगा, ऐसा मझे प्रतीत हो रहा है.
कानन पलाश खिले, आयी है बहार नई,
सेमर भी कुसुमित, फाग का महीना है,
सारे रंग लाल-लाल, फूलों पर दिखाई दें,
कुहु-कुहू कोयल की, राग का महीना है,
सूरज तपन तन, बदन अगन भर,
दाह रही तन मन, आग का महीना है,
सैर सपाटा सुबह, मन में उल्लास भरे,
नदियाँ तलाव नीर, बाग़ का महीना है ||
आदरणीय सौरभ जी, भाई संदीप जी, आदरेया सीमा जी सादर मैंने कुछ सुधार करने का प्रयास किया है. क्या मैं सही दिशा में प्रयास कर रहा हूँ? वर्णिक छन्दों में मनहरण मेरे पसंदीदा छंद है.
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