माँ की सीख पापा के संस्कार
फँसी रहती हूँ इनमें मैं बारम्बार
माँ ने सिखाया था – पति को भगवान मानना
पापा ने समझाया था – गलत बात किसी की न सुनना
माँ ने कहा - कितनी भी आधुनिक हो जाना
पर अपने परिजनों का तुम पूरा ख्याल रखना
पढ़लिख आधुनिक बनकर रूढीवादी न बनना
और पुरानी परम्पराओं का भी तुम ख्याल करना......
पापा ने बताया - भारतीय संस्कृति बहुत अच्छी है
पर इसकी कुछ मान्यताएं बहुत खोखली हैं
बेटे-बेटी में भेदभाव बहुत दर्शाती है
मुझे ये बात न बिलकुल भाती है
पति-पत्नी दोनों जीवनसाथी होते हैं
पर पति का स्थान इसमें उच्च मानते हैं ....
माँ ने समझाया - बिटिया यूँ तो पति-पत्नी दोनों होते हैं साथी
पर पति सेवा ही पत्नी को धर्म का मार्ग दिखाती
पति की दीर्घआयु के लिए करवाचौथ का व्रत न भूलना
चंद्रदेव की कर पूजा पति का जब करेगी तू दर्शन
जीवन तेरा हो जायेगा इससे सफल और पूरण ....
पापा ने सिखाया - तेरा लालन पालन मैंने किया न किसी बेटे से कम
इस पुरुष प्रधान देश मे बेटी नहीं है किसी बेटे से दोयम
बेटी ही तो देती एक बेटे को जनम – हर कष्ट सहकर
फिर मनाती भी है हर वर्ष भाईदूज ,राखी ,करवाचौथ – वो भूखे पेट रहकर
जिन्दगी की इन हालातों को बदलना , तू हिम्मती और संयमी बनकर ....
आज माँ की सीख-पापा के संस्कार
सभी तो हैं ,जिन्हें मैं चली साथ लेकर
पर कई खवाहिशें.... कई सपने ....
कई हसरतें ....और कई उलझनें ....
समाज की कई रीतिरिवाज़ और रस्में ....
जिनमें मन की आवाज़ दब सी जाती है
मन के भावों को, व्यक्त नहीं वो कर पाती है
मानसिकरूप से अपने निर्णय
बेटी कहाँ आज भी ले पाती है
न जाने वो दिन कब आएगा
बेटी को बेटे से कम नहीं आँका जायेगा
विजयश्री
१०.११.२०१२
Comment
सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया विजयश्री जी !!!!!!!!!!!
माँ की सीख और पापा के दिए संस्कार दोनों ही जीवन पथ पर संतुलन बना कर चलने के लिए बहुत ज़रूरी हैं...
रीति रिवाज़, रस्में सब जीवन को आसान बनाने के लिए और मधुरता से भर देने के लिए हैं.. समाज नें उनका स्थूल तत्व तो ग्रहण कर लिया और उसके प्रति बहुत आग्रही भी हो गया...लेकिन प्राण तत्व को बहुत पीछे छोड़ दिया. इसी कारण ये किसी भी प्राण तत्व ग्राही संवेदनशील ह्रदय को आरोपित से प्रतीत होते हैं........और हम मन ही मन अपनी माँ और पिता की दी गयी शिक्षा और संस्कारों का ज़िंदगी के आरोपित खोखलेपन के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते.
मानसिकरूप से अपने निर्णय
बेटी कहाँ आज भी ले पाती है.......................मर्मस्पर्शी पंक्ति
न जाने वो दिन कब आएगा
बेटी को बेटे से कम नहीं आँका जायेगा .............इस प्रश्न का उत्तर हर बेटी का मन ढूँढता है.
इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया विजयश्री जी
विजय श्री जी बहुत सुंदर ,पापा के संस्कर , माँ की सीख .मैं समझती हूँ कि जिस प्रकार हम अपने बेटे की लम्बी उमर के लिये अगर
जीवित पुत्रिका का व्रत कर सकती हैं तो उसी प्रकार करवा चौथ भी करती हैं .बस मन में प्रेम की भावना होनी चाहिये . बूराई तब जन्म
लेती जब व्रत पूजा पाठ बलपूर्वक कराई जाय .मान लीजिये ये रीति रिवाज़ समाज से निकाल दिया जाय तो कल्पना कीजिये कैसा होगा वह समाज . धन्यवाद .
आप अपनी जगह बिल्कुल सही हैं, जहां तक मेरा अनुभव है बंगाल, सहित पूरा उत्तरपूर्व का इलाका ऐसा है जहां स्त्री को कहीं अधिक आजादी मिली है । यह एक शोध का विषय है कि ऐसा क्यों हुआ । हो सकता है हिंदी भाषी प्रदेशों से सामंतवादी विचारधारा का अभी लोप होना बाकी है, यहां का ट्रेंड भी ऐसा ही है कि लड़कों का रूझान उन नौकरियों की ओर अधिक है जहां वे दबदबा जमा सके जैसे कि आई ए एस एवं इससे जुड़ी अन्य सेवाएं ।
माँ की सीख में औरत् का दर्द छिपा है
पापा के संस्कार संस्कृति के देन है |
सामंजस्य बिठाना,संज्ञान लेना है,
सही निर्णय लेकर आगे बढ़ना है | -
.मेरी इस पर यही समझ/सलाह है |- सुन्दर अभ्व्यक्ति जो सोचने का विवश करती है | बधाई स्वीकारे विजय श्री जी
मीना पाठकजी आभार ......
आज माँ की सीख-पापा के संस्कार
सभी तो हैं ,जिन्हें मैं चली साथ लेकर
पर कई खवाहिशें.... कई सपने ....
कई हसरतें ....और कई उलझनें ....
समाज की कई रीतिरिवाज़ और रस्में ....
जिनमें मन की आवाज़ दब सी जाती है
मन के भावों को, व्यक्त नहीं वो कर पाती है
मानसिकरूप से अपने निर्णय
बेटी कहाँ आज भी ले पाती है
न जाने वो दिन कब आएगा............. दिल को छूती हुई पंक्तियाँ .. बधाई आप को
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