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मैं कौन हू ,मैं क्या हू ,
नही जानता ,
 मैं खुद ही स्वयं को ,
नहीं पहचानता ,


 मैं स्वप्न हू या कोई हक़ीकत ,
मैं स्वयं हू या कोई वसीयत ,


जैसे किसी कॅन्वस पर उतारा हुआ ,
रंगों की बौछारों से मारा हुआ ,


हर किसी के स्वप्न की तामिर हू मैं ,
हक़ीकत नही निमित तस्वीर हू मैं ,


मैं रात हू किसी की ,
तो किसी का सबेरा ,
 मैं सबका जहाँ में ,
नही कोई मेरा ,


अपने ही अंदर खो सा गया हूँ मैं ,
जागते -जागते सो सा गया हूँ मैं ,


बहुत सोचता हूँ ,

समझ पता नहीं हूँ ,
 मैं  ज़िंदगी के गीत ,
क्यूँ गाता नहीं हूँ ,


जहाँ था वहीं ,
थम सा गया हूँ ,
कहीं अचानक राम सा गया हूँ ,


मुझे मेरे मन सुकून चाहिए ,
 मैं जी लूँ फिर से , वो ज़ुनून चाहिया ,


जानता हू क्या हूँ ,
मैं  क्या चाहता हूँ ,
"परम " किसी को मैं मानता हूँ ,


जो आएगा एक दिन सहारे लिए ,
मेरे लिए बहुत से किनारे लिए ,


एक किनारा लूँगा और सो जाऊँगा ,
बहुत दूर दुनिया से हो जाऊँगा ,


बस में , वो , और होगा सुकून ,
नये जीवन को जीने का नया जुनून .

अश्क

"मौलिक व अप्रकाशित"

Views: 654

Comment

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Comment by वेदिका on April 10, 2013 at 11:55pm
आदरणीय अशोक जी! आपने आत्म विश्लेषण तरीके से किया है ....शुभकामनाये!
कुछ और भी निवेदन है हम सभी से .....अगर रचना को टैग कर दिया कर जाये तो हम पाठकगण को सुविधा हो जाती है रचना को आनन्द पूर्वक गृहीत करने में ....!
मुझे ये समझ नही आये
// कहीं अचानक राम सा गया हूँ ,//वो ज़ुनून चाहिया //

शुभकामनाये
सादर गीतिका 'वेदिका'
Comment by ram shiromani pathak on April 10, 2013 at 12:07pm

बहुत सुन्दर आत्मविश्लेष किया है आपने अशोक जी , बहुत बहुत बधाई

Comment by coontee mukerji on April 10, 2013 at 10:53am

बहुत सुन्दर आत्मविश्लेष किया है आपने अशोक जी , बहुत बहुत बधाई

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 10, 2013 at 9:13am

आ0 कात्याल जी, मैं रात हू किसी की,
तो किसी का सबेरा,
मैं सबका जहाँ में,
नही कोई मेरा,--- बहुत ही सुन्दर । शुभकामनाएं हादिक बधाई। सादर,

Comment by Bishwajit yadav on April 10, 2013 at 8:57am
प्रणाम अशोक जी बहुत सुन्दर रचना

अपने ही अंदर खो सा गया हूँ मैं ,
जागते -जागते सो सा गया हूँ मैं,

वाह वाह क्या बात है जय हो

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