मैं कौन हू ,मैं क्या हू ,
नही जानता ,
मैं खुद ही स्वयं को ,
नहीं पहचानता ,
मैं स्वप्न हू या कोई हक़ीकत ,
मैं स्वयं हू या कोई वसीयत ,
जैसे किसी कॅन्वस पर उतारा हुआ ,
रंगों की बौछारों से मारा हुआ ,
हर किसी के स्वप्न की तामिर हू मैं ,
हक़ीकत नही निमित तस्वीर हू मैं ,
मैं रात हू किसी की ,
तो किसी का सबेरा ,
मैं सबका जहाँ में ,
नही कोई मेरा ,
अपने ही अंदर खो सा गया हूँ मैं ,
जागते -जागते सो सा गया हूँ मैं ,
बहुत सोचता हूँ ,
समझ पता नहीं हूँ ,
मैं ज़िंदगी के गीत ,
क्यूँ गाता नहीं हूँ ,
जहाँ था वहीं ,
थम सा गया हूँ ,
कहीं अचानक राम सा गया हूँ ,
मुझे मेरे मन सुकून चाहिए ,
मैं जी लूँ फिर से , वो ज़ुनून चाहिया ,
जानता हू क्या हूँ ,
मैं क्या चाहता हूँ ,
"परम " किसी को मैं मानता हूँ ,
जो आएगा एक दिन सहारे लिए ,
मेरे लिए बहुत से किनारे लिए ,
एक किनारा लूँगा और सो जाऊँगा ,
बहुत दूर दुनिया से हो जाऊँगा ,
बस में , वो , और होगा सुकून ,
नये जीवन को जीने का नया जुनून .
अश्क
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत सुन्दर आत्मविश्लेष किया है आपने अशोक जी , बहुत बहुत बधाई
बहुत सुन्दर आत्मविश्लेष किया है आपने अशोक जी , बहुत बहुत बधाई
आ0 कात्याल जी, मैं रात हू किसी की,
तो किसी का सबेरा,
मैं सबका जहाँ में,
नही कोई मेरा,--- बहुत ही सुन्दर । शुभकामनाएं हादिक बधाई। सादर,
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