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मालिक सबका एक है, खुदा गॉड भगवान।
धर्म पंथ में बांटकर, भटक गया इंसान॥

निराकार साकार ही, दोनों ईश्वर रूप।
देह और छाया सदृश, संग-संग हैं धूप॥

सूरज तारे चांद सब, सगुण ईश के रूप।
नियति नियम निर्गुण कहें, अद्भुत भव्य अनूप॥

ईश प्राप्ति निज खोज है, खोज सके तो खोज।
मोह निशा से घिर मनुज, बाहर भटके रोज॥

आत्मरूप में जाग नर, भटक नहीं अन्यत्र।
तुझ में ईश्वर ईश तू, तू ही तू सर्वत्र॥

धूम- अग्नि दिन- रात से, सुख से दुख संयुक्त।
धूप संग ही छांव है, सत्य कौन प्रभु उक्त॥

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 14, 2013 at 3:35pm

प्रिय विन्ध्येश्वरी जी,

उत्कृष्ट चिंतन मनन दर्शन को शब्द देती दोहावली को पढ़ मन प्रसन्न हो गया

इन दो दोहों की तारीफ़ में तो क्या कहूँ..... अपनी शुभ्रता के सत्य को आप ही कहते हैं ये 

ईश प्राप्ति निज खोज है, खोज सके तो खोज।
मोह निशा से घिर मनुज, बाहर भटके रोज॥...............ईश्वर प्राप्ति स्वयं की ही खोज है..किसी और को खोजना ही नही है, बस खुद को पहचान भर लेना है... वाह! क्या गहन समझ है और उसकी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति 

आत्मरूप में जाग नर, भटक नहीं अन्यत्र।
तुझ में ईश्वर ईश तू, तू ही तू सर्वत्र॥............. तू ही तो वह ईश्वर आप है.जो हर कण में व्याप्त है, अद्वैतता को बहुत खूबसूरती से  शब्द दिये हैं..

बहुत बहुत बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on April 14, 2013 at 10:20am

प्रिय विंध्येश्वरी जी, प्रत्येक दोहा सारगर्भित है. जीवन के सच्चे सुख का यही तो मूलमंत्र है.बधाई.

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 13, 2013 at 11:16pm

आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी सुन्दर दोहे. बधाई स्वीकारें.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 13, 2013 at 7:16pm
भाई राम शिरोमणि जी! दोहों की सराहना के लिये हार्दिक आभार।
Comment by ram shiromani pathak on April 13, 2013 at 6:58pm

ईश प्राप्ति निज खोज है, खोज सके तो खोज।
मोह निशा से घिर मनुज, बाहर भटके रोज॥

आत्मरूप में जाग नर, भटक नहीं अन्यत्र।
तुझ में ईश्वर ईश तू, तू ही तू सर्वत्र॥

आदरणीय भाई विन्ध्येश्वरी जी सुन्दर दोहे रचे हैं आपने!हार्दिक बधाई 

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 13, 2013 at 4:48pm
आदरणीया राजेश कुमारी जी! दोहावली पसंद करने के लिये हार्दिक बधाई।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 13, 2013 at 4:46pm
आदरणीय संदीप भाई जी! दोहावली पसंद करने के लिये हार्दिक बधाई।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 13, 2013 at 4:42pm
आदरणीय ब्रिजेश जी! दोहों की सराहना के लिये हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 13, 2013 at 11:18am

निराकार साकार ही, दोनों ईश्वर रूप।
देह और छाया सदृश, संग-संग हैं धूप॥बहुत सुन्दर उत्कृष्ट दोहावली कही है प्रिय विन्ध्येश्वरी जी हार्दिक बधाई 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 12, 2013 at 9:46pm

आदरणीय विनय भाई सादर 

बहुत ही अच्छे दोहे रचे हैं आपने 

दर्शन से भरे हुए

बहुत बहुत बधाई स्वीकारें

आदरणीय लक्ष्मण सर जी का सुझाव मंच में सीखने सिखाने के क्रम को आश्वस्त करता है

सादर बधाई उन्हें भी  

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