हिन्दी गजल...
गर्मियों की शान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
धूप में वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हर पथिक हारा थका, पाता यहाँ विश्राम है,
भेद से अंजान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,
मोहिनी, मृदु-गान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हाँफते विहगों की प्यारी, नीड़ इनकी डालियाँ,
और इनकी जान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुख मोड़कर,
सृष्टि का अनुदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
जो न साधन जोड़ पाते, वे शरण पाते यहाँ,
दीन का भगवान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हे मनुष मिटने न दो, जीवन के अनुपम स्रोत को,
गूढ यह विज्ञान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
मौलिक एवं अप्रकाशित
----कल्पना रामानी
Comment
रचना को अपना स्नेह देने के लिए हार्दिक आभार प्रदीप जी
सादर
हे मनुष मिटने न दो, जीवन के अनुपम स्रोत को,
गूढ यह विज्ञान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
सुन्दर आवाहन
सादर बधाई.
आदरणीय सौरभ जी, आपने इतने विस्तार से दोनों शब्दों का अंतर स्पष्ट किया है, आगे अवश्य ध्यान रखूंगी। भूल सुधार भी कर दिया है। बाकी स और श को तो समांत कोई नहीं मानता। आपकी रचना मैंने पढ़ ली, बहुत सुंदर है। मैं भी इस तरह कुछ दोहों में स और श का प्रयोग कर चुकी हूँ लेकिन टिप्पणी होने के बाद ठीक करती जा रही हूँ। एक बात और पूछनी है आपसे कि सुधार की हुई रचनाएँ पुरस्कार योजनाओं में शामिल होती हैं या नहीं?...सादर
आदरणीया कल्पना जी, सही कहूँ तो मेरा मन आपके प्रति अपार आदर से भर गया है. जिस श्रद्धानुनत ताकत से आपने स्वयं को अभिव्यक्त किया है वह सामान्य हृदय के बस की बात तो कभी नहीं है. आपका साहित्यानुराग अप्रतिम है, आदरणीया. आपसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. और, यह हमारा सौभाग्य है कि आप जैसी स्वयंसमृद्ध विदुषी से हमारा परिचय हुआ है. आप जैसी साहित्यानुरागियों का किसी मंच पर होना उस मंच के वैचारिकतः सुदृढ़ होते जाने का द्योतक है.
//दोहे और कुण्डलिया छंद में न और ण को समांत बताया गया।//
आदरणीया, न तथा ण को कई स्थानों समांत में लेते हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि वर्ग और उच्चारण दोनों के हिसाब से ये दोनों अक्षर निहायत भिन्न अक्षर हैं. यह अवश्य है कि शब्दों के आंचलिक स्वरूप में ण अक्सर न की तरह व्यवहृत होता है. तो ऐसा लिखा भी जाता है. जैसे, प्राण को प्रान या बाण को बान लिख लेते हैं. लेकिन खड़ी हिन्दी में प्रान या बान लिखना अशुद्ध अक्षरी माना जायेगा.
आप विश्वास करें, आदरणीया कल्पनाजी, स और श तक के समांत या बनते तुकांत पर प्रश्न उठाया गया है. मेरी ही रचना पर उठाया गया है. जबकि आप भी इतने दिनों के रचनाकर्म के लिहाज से जानती होंगी कि ष को उच्चारण और व्यवहार के लिहाज से छोड़ भी दें तो स तथा श की तुकांतता इतनी चौंकाने वाली नहीं होती कि उसपर इतनी बहस होने लगे कि प्रस्तुत हुई रचना ही हाशिये पर चली जाये. सर्वोपरि, इस तरह का कोई इतिहास भी नहीं है कि स और श के तुकांत शब्द ख़ारिज हो जाते हैं. लेकिन ऐसा हुआ है. खूब बहस हुई है. कारण चाहे जो हो. उस रचना का लिंक सादर प्रस्तुत है.
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:305260
इसी बहस के बाद से, आदरणीया, हमने स्वयं पर भी अंकुश लगाया है कि स और श तक की तुकांतता पर भी संवेदनशील रहूँगा.
लेकिन मेरा सादर निवेदन है कि ण तथा न को हम भिन्न ही मानें.
अपनी परस्पर बातचीत या ससंदर्भ संवाद अपने मानसिक उन्नयन का ही सार्थक विस्तार हो, इसी अपेक्षा के साथ.
सादर
आदरणीय विनय जी, आपका सुझाव बेहतर है, मैं रचना के सुधार के साथ यह शब्द भी बदल दूँगी। आपका हृदय से आभार...
आदरणीय सौरभ जी, मैं यह तो स्पष्ट कर ही चुकी हूँ कि मेरा शिल्प ज्ञान, शब्द ज्ञान कमजोर है, शिक्षा हाईस्कूल तक हुई है हिन्दी का ज्ञान भी मातृभाषा 'सिन्धी' होने के कारण खड़ी बोली के सीमित शब्दों तक ही है। क्षेत्रीय भाषाओं का कोई ज्ञान नहीं है। लेखन से सिर्फ इत्तफाक से इसी दशक से ही जुड़ी हूँ। मैं कंप्यूटर हाथ में लेने के साथ ही जिस समूह(अभिव्यक्ति) से जुड़ी और सीखना शुरू किया, वहीं जो बताया गया ध्यान में रखती गई। दोहे और कुण्डलिया छंद में न और ण को समांत बताया गया। जिसके आधार पर अनेक रचनाओं में प्रयोग किया। अब यदि आप कहते हैं और यह सर्व मान्य मत है तो यह मेरे लिए भी मान्य होगा। इस रचना को ठीक करने की कोशिश करूंगी। विद्वानों की अलग अलग राय से भी हम भ्रमित हो जाते हैं। मैं निर्दोष लेखन को हीमहत्व देती हूँ। आपका सहयोग मिलता रहेगा तो अभ्यास के साथ अनुभव भी बढ़ता जाएगा। आपका हार्दिक धन्यवाद...
वाह !
वृक्ष को हम मात्र वृक्ष कहाँ कहते हैं ? इसका अश्वत्थ ही नहीं कोई स्वरूप हो हमारी संस्कृति का मूर्धन्य भाग है.
आपकी ग़ज़ल से क्या गुजरा, चैत की रात में नई कोंपलों से गदबदाये पेड़ के नीचे झुलही चारपायी में धँसे निरभ्र गगन के तारों को निहारने के मनोहारी अनुभव को जीता गया. आदरणीया, ग़ज़ल के सभी अश’आर सुखद हैं. हार्दिक बधाई.. .
एक बात :
काफ़िया निर्धारण में हर्फ़ों की पवित्रता पर विशेष ज़ोर रहता है. हम उसे हिन्दी वर्णमाला के अनुसार तो बरत ही सकते हैं. उस हिसाब से टवर्ग के ण और तवर्ग के न को साथ लेकर काफ़िया निर्धारण मुझे बहुत संतुष्ट नहीं कर पाया.
यह आवाज़ और आज का अंतर या साम्य नहीं है, आदरणीया, बल्कि वर्णमाला के भिन्न वर्ग के भिन्न अक्षर का साम्य बन रहा है. देखियेगा, क्या मैं गलत हूँ ?!
सादर
आदरणीय अभिनव अरुण जी, प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद
नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,
भूमि पर वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
एक अरसे बाद इस कदर ताजगी और सादगी से तर ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ आदरणीया कल्पना रामानी जी ! आपकी भाषा और सोच गत मौलिकता में खिंचाव है , गहराई है , बहुत बहुत शुभकामनाये और बधाई दुपहरी में शीतलता का एहसास कराती इस ग़ज़ल के लिए !!
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